‘ख़लीफ़ों की बस्ती’ शिवकुमार श्रीवास्तव का दूसरा उपन्यास है—एक नितान्त भिन्न कथा-भूमि पर रचा गया। ‘बिल्लेसुर बकरिया’ और ‘कुल्लीभाट’ की परम्परा में यह उपन्यास लेखक के नए अनुभव क्षेत्र का बखान है। बुंदेलखंड में ख़लीफ़ाओं का माफ़िया राज चलता है। ज़ोर-ज़बर्दस्ती से अपनी बात मनवाना, काइयाँपन से क़ानून की दीवारों में सेंध लगाना तथा शालीनता, मर्यादा और विधि सम्मत जीवन के पक्षधरों को अपना शिकार बनाना इन ख़लीफ़ाओं की पहचान में शामिल है। इस उपन्यास की बस्ती के ख़लीफ़ाओं में छोटे-मोटे नेता हैं, पीत-पत्रकार हैं, नक़ली डॉक्टर हैं, छात्र नेता हैं, ठर्रा उतारनेवाले हैं, बेकार तरुण हैं, साधारण व्यापारी हैं जो अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने से गुरेज़ नहीं करते। सत्ता और प्रतिष्ठान संरक्षित ये शक्तियाँ आज भी वैसी ही हैं जैसे महाभारत काल में थीं—‘महाभारत’ का एकलव्य आज सखाराम है और द्रोण—उसके तो कई रूप हैं—विधायक, पुलिस इंस्पेक्टर, डॉक्टर।

यह उपन्यास दलित-विमर्श नहीं है, लेकिन दलितों के प्रति सवर्णों के रवैए का रोचक और मार्मिक साक्ष्य अवश्य उपलब्ध कराता है। जाति-विभक्त समाज में जातियों के भीतरी अन्तर्घातों और पारस्परिक दाँव-पेंचों की यह कथा हमें विचलित तो करती ही है दुनिया को बेहतर बनाने की प्रेरणा भी देती है। व्यंजक भाषा, बिम्ब बहुल चित्रण और चुटीले संवादों के कारण ‘ख़लीफ़ों की बस्ती’ औपन्यासिक प्रवृत्ति का नया उदाहरण है, जो समाज के हाशिये पर पड़ी हुई जातियों और वर्गों को समाज के मुख्य प्रवाह में लाने की रचनात्मक कोशिश करता है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2001
Edition Year 2023, Ed. 2nd
Pages 252p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2
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Shivkumar Shrivastava

Author: Shivkumar Shrivastava

शिवकुमार श्रीवास्तव

सागर विश्वविद्यालय के दर्शन-विभाग में कुछ वर्षों तक अध्यापक। 1 जून, 1977 से फरवरी, 1980 और जून, 1980 से 1985 के सत्र में म.प्र. विधानसभा के सदस्य। लम्बी अवधि तक सागर विश्वविद्यालय कुल-संसद और कार्य-समिति के सदस्य। अनेक श्रम-संगठनों और आन्दोलनों से सम्बद्ध। म.प्र. पंचायती राज वित्त एवं ग्रामीण विकास निगम (म.प्र. शासन का उपक्रम) के अध्यक्ष (1988-1989); अध्यक्ष, पूर्व विधायक मंडल, मध्य प्रदेश तथा म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष। संरक्षक—अखिल भारतीय अंबिकाप्रसाद दिव्य स्मृति पुरस्कार वितरण समिति, सागर। व्यवसाय से अधिवक्ता।

सम्पादन : ‘जागृति’ मासिक 1953 से 1958 तक।

प्रमुख कृतियाँ : उपन्यास—‘कठपुतलियों का दौर’ (1989) तथा ‘ख़लीफ़ों की बस्ती’ (2000); कविता-संग्रह—‘भेरी’ (1945), ‘मृत्युंजय’ (1949), ‘चेतना संकल्प-धर्मा’ (1967), ‘तुम ऋचा हो’ (1980), ‘शहर सहमा हुआ’ (1981), ‘समय काग़ज़ पर’ (1983), ‘अरे यार सूरज’ (1993); खंड-काव्य—‘ताजमहल’ (1950); लम्बी कविता—‘नई ख़बर’ (1951); गीत-संग्रह—‘अल्पना रचाना’ (1989); निबन्ध-संग्रह—‘संवादहीनता के विरोध में रचनाधर्मिता’ (1999)।

बाल-साहित्‍य : ‘ज़मीन की कथाएँ’ (1989); कथा-काव्य—‘कृष्ण क्यों जीते?’ ‘राक्षस क्यों हारा?’ (1993)।

डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) में कुलपति रहे।

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