कृष्ण बलदेव वैद के कथा साहित्य से जिन पाठकों का परिचय है, वे जानते हैं कि उन्हें मनुष्य-जीवन के नाटकीय सन्दर्भों की गहरी पहचान है। यहाँ भी वैद जीवनगत घटनाओं को सायास नाटकीय बनाने के बजाय जीवन में निहित नाटक को पकड़ते हैं। यहाँ तक कि सामान्य लगते रंग-संकेतों को भी नाटकीय प्रसंग के रूप में विन्यस्त करने का सामर्थ्य उन्होंने प्रदर्शित किया है।
वैद बख़ूबी समझते हैं कि नाटक की सम्पूर्णता उसके मंचन में है। इस नाटक को पढ़ते ही पाठक को नाटक अपने सामने घटित होते दिखता है। हालाँकि इसकी विषयवस्तु जटिल है लेकिन सरल-सहज प्रस्तुति के कारण ऐसा मुमकिन हुआ है। गीता, अखिल, सुजाता जैसे चिर-परिचित चरित्रों के माध्यम से लेखक ने स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का ऐसा रचनात्मक विमर्श इस रचना में सम्भव किया कि ये थोड़े से पात्र, अपने मित कथनों में ही बड़े मानवीय मूल्यों को पुनर्परिभाषित कर देते हैं। अपनी बात रखने का दार्शनिक लहज़ा पात्रों के चरित्र रचने के साथ ही अर्थ के धरातल पर जिस ‘वर्बल आइरनी’ का निर्माण करता है, वह अद्भुत है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2004 |
Edition Year | 2023, Ed. 2nd |
Pages | 79p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |