यह दर्ज करना उचित होगा कि इधर की हिन्दी कविता में अभिधा के प्रति बढ़ती उदासीनता के बावजूद सुधा उपध्याय उसकी शक्ति और सम्भावनाओं का अन्वेषण करने से नहीं हिचकतीं और सीधी बात को सीधे तरीक़े से कहने में संकोच नहीं करतीं...
‘उन सबका आभार/जिनके नागपाश में बँधते ही/यातना ने मुझे रचनात्मक बनाया उनका भी हृदय से आभार/जिनके घात-प्रतिघात/छल-छद्म के संसार में/मैं घंटे की तरह बजती रही।/मेरे आत्मीय शत्रु/तुमने तो वह सब कुछ दिया/जो मेरे अपने भी न दे सके।’
यहाँ कटुता या प्रतिहिंसा नहीं, जीवन की शर्तों का सामना उद्वेगरहित भाव से करनेवाला साहस है। वह इस कवयित्री को ‘अबला जीवन, हाय तुम्हारी यही कहानी—आँचल में है दूध और आँखों में पानी’ वाली पारम्परिकता से तो भिन्न बनाता ही है; बल्कि सुधा उपाध्याय की इन कविताओं में जो नारी-चेतना आदि से अन्त तक फैली हुई है, वह न अबला की ‘हाय’ से शुरू होती है, न जगत के दु:ख-संकटमय जंत्र को ‘चकनाचूर’ करने की दुराशा में ख़त्म दिखती है। उलटे, वह हालात को बदलने में यक़ीन करती है जिसके तमाम पड़ावों में से कुछ ये हैं—‘सुना है वह स्त्री/हो गई है अब ख़ुद के भी ख़िलाफ़/चीख़-चीख़कर दर्ज करा रही है सारे प्रतिरोध/कहती है, सहना और चुपचाप रहना/कल की बात थी।’
यदि कोई पूछे कि अँधेरों से लड़ने की क़ूवत/औरत, तूने कहाँ से जुटाई/ये आईना जो दरक गया था कभी का/इसे फिर कहाँ से उठा लाई?’ तो सुधा के पास उत्तर मौजूद है—‘अब पेंसिलों की धार बनाने से पहले/हँसिए की धार बनानी होगी/दिमाग़ चलाने के साथ, चलाने होंगे हाथ/दूसरों को कहने से पहले/अब दिखाना होगा ख़ुद करके।’
लेकिन यह समझने के लिए दूर जाना ज़रूरी नहीं कि सुधा को हँसिए की धार बनानी है—ख़ुद करके दिखाने के लिए, न कि प्रतिपक्ष की गरदन रेतने के लिए : ‘जब पक कर खड़ी हो जाए फ़सल/बाँट दो बूरा-बूरा/चूरा-चूरा/यही है सृजन।’
सन्तोष का विषय यह है कि सुधा उपाध्याय की दृष्टि निकट और तत्काल तक सीमित नहीं; वह इतिहास और अतीत को भी अपने फलक का हिस्सा बनाती हैं। वहाँ सम्भावनाओं के अनेक द्वार खुलने की प्रतीक्षा में होंगे।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2013 |
Edition Year | 2013, Ed. 1st |
Pages | 128p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |