Hindi Sahitya Ka Aalochanatmak Itihas

Author: Ramkumar Verma
Edition: 2023, Ed. 13th
Language: Hindi
Publisher: Lokbharti Prakashan
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Hindi Sahitya Ka Aalochanatmak Itihas
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“साहित्य और संस्कृति एक वृन्त के दो पुष्प हैं, और उनका पोषण एक ही रस से होता है। एक ही रस में रचे-पचे तथा परस्पर अभिन्न अन्तरंगता से जुड़े ऐतिहासिक चेतना के अद्वैत तत्त्व हैं।” ऐसी लेखक की अवधारणा है।

डॉ. वर्मा साहित्येतिहास को धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान और सामाजिक धारणाओं के अखंड प्रतिफल के रूप में परिभाषित करते हैं, इसलिए आपके समक्ष प्रस्तुत ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर अत्यन्त प्रामाणिक और विश्वसनीय बनकर उतरता है। आचार्य रामकुमार वर्मा का यह इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास के बाद ही नहीं लिखा गया, बल्कि शुक्ल जी के इतिहास-लेखन की अवधारणाओं से भिन्न प्रत्ययों के आधार पर लिखा गया।

लेखक ने संस्कृति, समाज, धर्म आदि को साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए प्रभावकारी और पोषणीय तत्त्व के रूप में स्वीकार किया। इसलिए उनका इतिहास केवल साहित्य का इतिहास न होकर संवत् 750 से लेकर संवत् 1750 तक के मनुष्य की सोच, भावुकता, समन्वयशीलता, प्रतिरोधात्मकता, रक्षणशीलता, आचरणपरकता और समग्र क्रियाशीलता का इतिहास भी है। यह जितना साहित्य का इतिहास है, उतना ही संस्कृति विमर्श है।

डॉ. वर्मा ने सन्धिकाल और चरणकाल पर जितने विस्तार और गम्भीरता से प्रमाण-पुष्ट उदाहरणों द्वारा विचार किया है, वैसा किसी साहित्य के इतिहासकार ने नहीं किया।

कलाकाल या रीतिकाल का इतिहास भी लिखा है और मेरी राय में वह रीतिकाल पर लिखे गए इतिहासों से अधिक प्रामाणिक और व्यवस्थित है। भक्तिकाल का एक अर्थ में इतिहास तो वर्मा जी ने ही लिखा।

इस इतिहास-ग्रन्थ से आदिकालीन और भक्तिकालीन साहित्य की गम्भीर समझ विकसित होती है और साहित्य के निर्वचन की शक्ति प्राप्त होती है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 1937
Edition Year 2023, Ed. 13th
Pages 688p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 3.5
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Ramkumar Verma

Author: Ramkumar Verma

रामकुमार वर्मा

जन्म : मध्य प्रदेश के सागर ज़िले में 15 सितम्बर, सन् 1905 में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा उनकी माता श्रीमती राजरानी देवी ने अपने घर पर ही दी, जो उस समय की हिन्दी कवयित्रियों में विशेष स्थान रखती थीं। 1922 ई. में प्रबल वेग से असहयोग की आँधी उठी और डॉ. वर्मा राष्ट्रसेवा में हाथ बँटाने लगे तथा एक राष्ट्रीय कार्यकर्ता के रूप में जनता के सम्मुख आए। वे प्रयाग विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में एम.ए. में सर्वप्रथम रहे। उन्‍हें नागपुर विश्वविद्यालय की ओर से 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' पर डॉक्ट्ररेट दी गई। वर्षों तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक तथा फिर अध्यक्ष रहे।

'वीर हमीर', 'चित्तौड़ की चिता', 'साहित्य समालोचना', 'अंजलि', 'कबीर का रहस्यवाद', 'अभिशाप', 'हिन्दी गीतिकाव्य', 'निशीथ', 'हिमहास', 'चित्ररेखा', 'पृथ्वीराज की आँखें', 'कबीर पदावली', 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास', 'जौहर', ‘रेशमी टाई', 'शिवाजी', 'चार ऐतिहासिक एकांकी', 'रूपरंग', ‘कौमुदी महोत्सव' रामकुमार वर्मा की प्रमुख रचनाएँ हैं।

डॉ. वर्मा का कवि-व्यक्ति छायावाद में मूल्यवान उपलब्धि सिद्ध हुआ। हिन्दी रहस्यवाद के क्षेत्र में भी उनकी विशेष देन है। नाटककार रामकुमार वर्मा का व्यक्तित्व आज भी कवि-व्यक्तित्व से अधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय है। नाटककार धरातल से उनका 'एकांकीकार' स्वरूप ही उनकी विशेष महत्ता है और इस दिशा में वे आधुनिक हिन्दी एकांकी के 'जनक' कहे जाते हैं, जो निर्विवाद सत्य है।

आलोचना के क्षेत्र में डॉ. वर्मा की कबीर विषयक खोज और उनके पदों का प्रथम शुद्ध पाठ तथा कबीर की रहस्यवाद और योगसाधना की पद्धति की समालोचना विशेष उपलब्धि है। हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन में उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' (1938 ई.) का विशेष महत्त्व है।

निधन : 5 अक्‍टूबर, 1990

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