Bhagwan Budh : Jeewan Aur Darshan

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Bhagwan Budh : Jeewan Aur Darshan

इस ग्रन्थ के मूल लेखक धर्मानन्द कोसम्बी पालि भाषा और साहित्य के प्रकांड पंडित थे। बौद्ध धर्म-सम्बन्धी तमाम मौलिक साहित्य का गहरा अध्ययन करके वे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान बने। लेकिन उनका सारा प्रयास केवल विद्वत्ता पाने के लिए नहीं था। वे बुद्ध भगवान के अनन्य भक्त थे। इसीलिए उन्होंने जो कुछ पाया, जो कुछ किया और साहित्य-प्रवृत्ति द्वारा जो कुछ दिया, वह सब का सब ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ था।

धर्मानन्द कोसम्बी द्वारा लिखित यह चरित्र शायद पहला ही चरित्र ग्रन्थ है, जो किसी भारतीय व्यक्ति ने मूल पालि बौद्ध ग्रन्थ ‘त्रिपिटिक’ तथा अन्य आधार-ग्रन्थों का चिकित्सापूर्ण दोहन करके, उसी के आधार पर लिखा हो। इस प्राचीन मसाले में भी जितना हिस्सा बुद्धि-ग्राह्य था उतना ही उन्होंने लिया। पौराणिक चमत्कार, असम्भाव्य वस्तु सब छोड़ दी, और जो कुछ भी लिखा, उसके लिए जगह-जगह मूल प्रमाण भी दिए। इस तरह बौद्ध-साहित्य में उनके काल की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जो कुछ भी जानकारी मिल सकती थी, उससे लाभ उठाकर इस ग्रन्थ में बुद्ध भगवान के काल की परिस्थिति पर नया प्रकाश डाला गया है। भगवान बुद्ध के बारे में प्रामाणिक जानकारी देनेवाली महत्त्वपूर्ण कृति।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2008
Edition Year 2020, Ed. 4th
Pages 304p
Translator Shripaad Joshi
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1.5
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Damodar Dharmanand Kosambi

Author: Damodar Dharmanand Kosambi

दामोदर धर्मानंद कोसंबी

प्रोफ़ेसर दामोदर धर्मानंद कोसंबी का जन्म 31 जुलाई, 1907 को गोवा में हुआ था। उनके पिता धर्मानंद कोसंबी बौद्ध दर्शन के विश्रुत विद्वान थे, जिन्हें हार्वर्ड (संयुक्त राज्य अमरीका) में प्राध्यापन के लिए आमंत्रित किया गया था। दामोदर केवल ग्यारह वर्ष की अवस्था में पिता के साथ हार्वर्ड गए और वहाँ कैम्ब्रिज लैटिन स्कूल में दाख़‍िल हुए। बाद में उन्होंने हार्वर्ड से गणित, इतिहास और भाषाओं में बहुत ऊँचे अंकों से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

भारत लौटकर प्रो. कोसंबी ने कुछ वर्ष तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में और फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्राध्यापन किया। सन् 1932 में वे गणित के प्रोफेसर के रूप में फ़र्ग्युसन कॉलेज, पुणे में नियुक्त हुए जहाँ उन्होंने चौदह वर्ष तक कार्य किया। अपने इस कार्यकाल को वे हँसी में ‘राम का वनवास’ कहा करते थे। इस वनवास के दौरान ही प्रो. कोसंबी ने ज्ञान के विविध क्षेत्रों पर अधिकार प्राप्त करने का अनथक संघर्ष किया और एक विचारक तथा विद्वान के रूप में अपनी महानता की आधारशिला रखी।

प्रोफ़ेसर कोसंबी ने 1946 में बम्‍बई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च में गणित का अध्यक्ष-पद स्वीकार किया और सोलह वर्ष यहाँ रहे। इस दौरान प्रो. कोसंबी ने न सिर्फ़ अपनी पहले की गवेषणाओं को अन्तिम रूप दिया बल्कि जीव-विज्ञान, नृजाति-विज्ञान, पुरातत्‍त्‍व और प्राक्-इतिहास के क्षेत्र में अनुसन्धान के नए द्वार खोले।

प्रो. कोसंबी मानव-समाज और उसमें होनेवाले परिवर्तनों को मार्क्सवादी दृष्टि से व्याख्यायित करने में विश्वास करते थे, लेकिन ख़ुद मार्क्स के तर्कों को आधुनिक अनुसन्धानों के आधार पर संशोधित करने से वे चूके नहीं। 20 जून, 1966 को प्रो. कोसंबी का असामयिक निधन हो गया।

प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ : ‘एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री’ (1956); ‘एक्ज़ासपेरेटिंग एस्सेज़ : एक्सरसाइज़ इन द डाइलैक्टिकल मैथड’ (1957); ‘मिथ एंड रियलिटी’ (1962); ‘द कल्चर एंड सिविलिजेशन ऑफ़ एंशिएंट इंडिया इन हिस्टॉरिकल आउटलाइन’ (1965)। इसके अतिरिक्त पाँच पुस्तकों का सम्पादन किया और 127 शोध-लेख लिखे।

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