1968 से 1975 तक खेतिहर आबादी, सामन्तवादी शोषण, वर्ण-विरोध और तमाम दूसरी असंगतियों से जुड़ा एक विशाल साहित्य बंगाल में सामने आया। ’75 के बाद हिन्दी, तेलुगू व मराठी में भी यह अन्तर्ध्वनि तेज़ हुई। शैवाल की कहानियों के लेखन की यह सामान्य पृष्ठभूमि है। यह दूसरी बात है कि इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में शैवाल का अपना संसार भी झाँकता है। शैवाल की कहानियों में अलग-अलग स्थितियाँ ही नहीं हैं, अलग-अलग हलचलें हैं। अलग-अलग छाया-ध्वनियाँ हैं, भीतर के संसार के अलग-अलग शेड्स हैं और एक ऐसी रूढ़िमुक्त भाषा है जो अपने चरित्रों की बोलियों से परहेज़ नहीं करती।
शैवाल ने सामान्य जन की कहानियाँ भी लिखी हैं और बिहार के उन्हीं सामान्य लोगों को विशिष्ट बनाकर भी ढेर सारी कहानियाँ लिखी हैं। इन कहानियों का मूल राग एक ही है और वह आदिम राग भी है, जिसे मैं हिन्दुस्तान का केन्द्रीय अन्तर्विरोध मानता हूँ।
शैवाल की इन कहानियों में गाँव की दुनिया पर बढ़ते हुए दबावों की यंत्रणा है, असंगठित-साधनहीन फिर भी परिस्थितियों से जूझते हुए स्त्री-पुरुष हैं तथा छोटे-छोटे समुदायों के भीतर का आतंक है। इनमें ‘मरुयात्रा’ का कष्ट-भरा अनुभव और वह मारक आतंक भी है, जिससे घिरा हुआ परमेसरा कहता है, ‘सुक्को कुओं में कूद गई, मालिक।’ सूचना चाहे बड़ी न हो, पर सुअर की तरह रीं-रीं कर उसका रोना क्या इस घटना से बाहर जाकर हमें कुछ और सुनने के लिए बाध्य नहीं करता?
— डॉ. सुरेन्द्र चौधरी
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Edition Year | 2000 |
Pages | 135p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |