Anuprayukt Bhashavigyan : Siddhant Evam Prayog

Edition: 2015, Ed. 3rd
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Anuprayukt Bhashavigyan : Siddhant Evam Prayog

अप्रयुक्त भाषाविज्ञान अपने सिद्धान्त और प्रणाली के आधार पर भाषा से सम्बन्धित ज्ञान के अन्य क्षेत्रों के अध्ययन विश्लेषण के लिए नया कार्यक्षेत्र खोलता है। इस नए कार्यक्षेत्र के प्रति प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव सचेत रहे तथा इससे उनके भाषावैज्ञानिक की संलग्नता भी निरन्तर बनी रही। उनका यह दृढ़ मत था कि भाषाविदों को ही आज अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता है। वे यह मानते थे कि भाषाविद् ही अपने भाषावैज्ञानिक ज्ञान का अनुप्रयोग करते हुए भाषा-अध्ययन को प्रौढ़ तथा उपयोगी बना सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि समाज में भाषा-प्रयोग, भाषा का कलात्मक प्रयोग, भाषा का शिक्षण आदि कई ऐसे क्षेत्र हैं जो अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के उपयोग के अभाव में उजागर हो ही नहीं सकते। यदि गम्भीरता से देखा जाए तो मातृभाषा और अन्य भाषाओं के शिक्षक, साहित्य-समीक्षक, अनुवादक, कोशकार सभी को भाषावैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। इसके साथ ही जो अध्येता साक्षरता-अभियान, लेखन-पद्धति के विकास, वर्तनी-शोधन, भाषा-नीति, कंप्यूटर-भाषा जैसे क्षेत्रों से सम्बन्ध हैं, वे भी भाषावैज्ञानिक अनुप्रयोग के अभाव में अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकते। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के विषय-क्षेत्र एवं उसकी कार्य-प्रणाली पर काफ़ी समय तक भ्रामक विचारों की धुंध छाई रही। प्रो. श्रीवास्तव ने इस प्रकार अवैज्ञानिक अन्तर्विरोधों को शान्त करने के साथ ही अपनी तार्किक और वैज्ञानिक विवेचन-पद्धति और इसके सभी उपवर्गों को एक भ्रान्तिमुक्त दिशा दी। उन्होंने यह प्रतिपादित और प्रमाणित किया कि भाषावैज्ञानिक नियमों के अनुप्रयोग के लक्ष्य भिन्न होते हैं। लक्ष्य-भेद से ही अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के भिन्न सन्दर्भ उपजते हैं; यही उसकी भिन्न शाखाओं के निर्माण और विकास का कारण बनते हैं। इन और ऐसे अनेक प्रश्नों पर यह पुस्तक
प्रो. श्रीवास्तव का नज़रिया प्रस्तुत करती है। इनमें से कई लेख कालक्रम के लम्बे अन्तराल में लिखे गए हैं। इन्हें क्रमबद्ध ढंग से उपलब्ध कराना इस संकलन के प्रकाशन का प्रमुख लक्ष्य है। हमारा यह भी उद्देश्य है कि समय के साथ प्रो. श्रीवास्तव के चिन्तन में क्रमशः प्रखरता, वैज्ञानिकता और व्यापकता के जो आयाम जुड़ते चले गए उनकी पहचान हो सके। पुस्तक के व्यापक फ़लक और इसकी वैचारिक गहराई को देखते हुए इसे हिन्‍दी में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की पहली सम्पूर्ण कृति कहा जा सकता है।

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Language Hindi
Publication Year 2000
Edition Year 2015, Ed. 3rd
Pages 395p
Translator Not Selected
Editor Beena Shrivastava
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2.5
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Author: Ravindranath Shrivastava

रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव


जन्म : 9 जुलाई, 1936 को बलिया (उ. प्र.) ।


लेनिनग्राद विश्वविद्यालय से भाषाविज्ञान में पीएच.डी.; अमेरिका में भाषा पर शोधकार्य के लिए पोस्ट–डॉक्टरल फ़ेलो; यूनेस्को (पेरिस), यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी (टोकियो) आदि अन्तरराष्ट्रीय संगठनों में भाषा–शिक्षण सम्बन्धी कार्य–गोष्ठियों के विशेषज्ञ सदस्य; अमेरिका और इटली के विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में अध्यापन दिल्ली विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर। शैलीविज्ञान, आलोचना, भाषा–शिक्षण, अनुवाद पर 6 पुस्तकें और रूसी, अंग्रेज़ी एवं हिन्दी में प्रकाशित अनेक लेख।


सम्पूर्ण लेख पाँच खंडों में—‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’, ‘हिन्दी भाषा : संरचना के विविध आयाम’, ‘भाषाविज्ञान : सैद्धान्तिक चिन्तन’, ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान : सिद्धान्त एवं प्रयोग', ‘साहित्य का भाषिक चिन्तन’।

निधन : 3 अक्टूबर, 1992

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