श्रीलाल शुक्ल सामान्य अर्थों में व्यंग्यकार नहीं हैं। उनका व्यंग्य गुदगुदी या हास्य पैदा करनेवाला व्यंग्य नहीं है। उसके पीछे निहित उनका गहन समाजबोध उनकी व्यंग्य रचनाओं को एक रचनात्मक आयाम देता है, ‘राग दरबारी’ जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह गुण उनकी खुदरा व्यंग्य रचनाओं में भी इतनी ही गम्भीरता से मौजूद है। ‘अंगद का पाँव’ उनके विविध व्यंग्य निबन्धों का संग्रह है जो उनकी सामाजिक संलग्नता, चिन्ता और अपनी दुनिया के प्रति उनके नज़रिए को समग्रतापूर्वक प्रतिबिम्बित करता है। मसलन इसी पुस्तक में शामिल ‘शॉ का भूमिका भाष्य’ में पुस्तक की भूमिका लिखवाने गए एक हिन्दुस्तानी लेखक को शॉ की कही बातें द्रष्टव्य हैं जिनसे आज के लेखकीय जगत में बड़े नामों से भूमिकाएँ लिखवाने के विज्ञापनी रिवाज की कलई खुल जाती है : ‘‘भूमिका इसलिए होती है कि पाठक समझ लें कि लेखक की एक अपनी भूमि भी है। भूमिहीन लेखकों के लिए भूमिका का इसलिए और भी महत्त्व है। इसलिए नाटक के कई अंक काटकर एक भूमिका लिखना नाटककार की बुद्धिमत्ता में शामिल है।’’ ‘‘जो अपने प्रकाशक से प्रस्तावना लिखवाते हैं, वे अपनी पुस्तक के लिए विज्ञापन लिखाने के पैसे तो बचा लेते हैं पर अपनी पुस्तक को रजिस्टर्ड दवाओं के स्तर पर उतार देते हैं।’’ कहने की आवश्यकता नहीं कि जीवन के हर विद्रूप के विषय में उनका व्यंग्य उतना ही यथार्थवादी और साफ़गो है जितना उक्त पंक्तियों में नज़र आता है। ‘अंगद का पाँव’ में शामिल सभी व्यंग्य इसका प्रमाण हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1980 |
Edition Year | 2023, Ed. 5th |
Pages | 155p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 21 X 14 X 1 |