''आज की परिस्थितियों पर विचार करें तो दो प्रश्न उभरते हैं। सही है कि नई समझ नज़र आती है, परन्तु वह सामाजिक या राजनैतिक स्तर के परिवर्तन में फलवती होती नहीं दिखाई पड़ती। बल्कि इसके बावजूद कि कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ गई है, गुट-उपगुट भी बन गए हैं विचारों का लेन-देन बढ़ गया है, साक्षरता में वृद्धि हुई है, फिर भी परिवर्तन को, परिवर्तनवादियों को पीछे हटना पड़ा है। ऐसा क्यों होता है? दूसरा प्रश्न यह कि जो बात सामाजिक परिवर्तन की है, वही राजनैतिक परिवर्तन की भी है। यह कैसे? कल-परसों तक खेत-मज़दूरों और छोटे खेतिहरों का नाम लेनेवाले कार्यकर्ता एकाध बड़े ज़मींदार-जैसे किसानों के पक्ष में रहकर सामाजिक क्रान्ति की बात करने लगे हैं। यह कैसे हुआ? क्या इन प्रश्नों के कुछ उत्तर पाना सम्भव है?
इन प्रश्नों के उत्तर देना आज महत्त्वपूर्ण हो गया है। आज समाजनीति और राजनीति में जितना अँधेरा छा रहा है, उतना पहले कभी नहीं छाया था। मैं दर्शकों को बिला वजह अंधार-यात्रा नहीं करा रहा हूँ। क्या अँधेरे की कुछ खोज की जा सकती है? यह खोज ज्ञानेश्वर के 'लेकर दीवा लगे अँधेरे के पीछे' कथनानुसार व्यर्थ भी साबित हो सकती है। फिर भी प्रयास नहीं छोड़ते बनता, छोड़ना भी नहीं चाहिए। अन्तिम सत्य कभी प्राप्त नहीं होता, परन्तु ज्ञान-प्रक्रिया रोकते नहीं बनती, रोकना काम का भी नहीं है।''
—गोविंद पुरुषोत्तम देशपाण्डे
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1999 |
Edition Year | 1999, Ed. 1st |
Pages | 106p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |