Ummid Hai, Aayega Vah Din

Author: Emile Zola
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Ummid Hai, Aayega Vah Din
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यह उपन्यास मज़दूर आन्दोलन में स्वतःस्‍फूर्तता की महत्ता स्पष्ट करते हुए संघर्ष में सचेतनता के आविर्भाव और क्रमिक विकास की जटिल और मन्थर प्रक्रिया को तथा संघर्ष की विभिन्न मंज़िलों को इतने प्रभावी ढंग से दर्शाता है कि मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए आज भी यह एक ज़रूरी अध्ययन-सामग्री लगने लगता है। ज़ोला ने इस प्रक्रिया का प्रभावशाली चित्रण किया है कि किस प्रकार अल्पविकसित चेतना वाले मज़दूर नए विचारों के क़ायल होते हैं, किस प्रकार अपनी जीवन-स्थिति को नियति मानकर जीनेवाले मज़दूरों के सोचने-समझने का ढंग हड़ताल के प्रभाव में बदलने लगता है और किस प्रकार वे आन्दोलन द्वारा उठाए गए सवालों को समझने और उनके हल के बारे में सोचने की कोशिश करने लगते हैं।

उपन्यास मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कार्यनीति या रणकौशल (टैक्टिक्स) से जुड़े प्रश्नों पर भी विस्तार में जाता है। मिसाल के तौर पर इसमें हड़ताल के दौरान तोड़-फोड़ की कार्रवाई और ‘फ्लाइंग पिकेट्‌स’ की सम्भावित भूमिकाओं पर भी विचार किया गया है। ‘फ्लाइंग पिकेट्‌स’ की हड़ताल के दौरान एक विशेष भूमिका दर्शाई गई है। यह इतिहास का तथ्य है कि फ़्रांसीसी कोयला खदानों में इनकी स्थापित परम्परा रही थी और 1869 की ल्‍वार हड़ताल के दौरान इनका विशेष रूप से इस्तेमाल किया गया था।

उपन्यास एक तरह से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन का एक लघु प्रतिरूप प्रस्तुत करता है। खदान मज़दूरों के एक छोटे से गाँव में तीन राजनीतिक धाराओं के सुस्पष्ट-सटीक प्रतिनिधियों की उपस्थिति हमें देखने को मिलती है। रासेनोर एक सुधारवादी है जो टकराव के बजाय वार्ताओं की राजनीति में विश्वास रखता है। सूवारीन अराजकतावादी है। एतिएन की अवस्थिति इन दोनों के बीच की बनती है। अनुभववादी ढंग से वह जुझारू वर्ग संघर्ष की सोच और क्रान्तिकारी जनदिशा की सोच की ओर आगे बढ़ता हुआ चरित्र है। पेरिस कम्यून के पूर्व, पहले इंटरनेशनल में भी यही तीन राजनीतिक धाराएँ कमोबेश प्रभावी रूप में मौजूद थीं।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2007
Edition Year 2007, Ed. 1st
Pages 494p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 3.5
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Emile Zola

Author: Emile Zola

एमील ज़ोला


जन्म : 2 अप्रैल, 1840; पेरिस। ज़ोला फ़्रांस आ बसे इतालवी पिता और फ़्रांसीसी माँ की सन्तान थे। ज़ोला के बचपन और कैशोर्य का अधिकांश समय दक्षिणी फ़्रांस में एक्स-एन-प्रोवेंस में बीता, जहाँ उनके सिविल इंजीनियर पिता म्‍युनिसिपल वाटर सिस्टम के निर्माण के काम में लगे हुए थे। पेरिस में अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद ज़ोला दो प्रयासों के बाद भी बेकेलोरिएत परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सके। नतीजतन उच्च शिक्षा के रास्ते बन्द हो गए और ज़ोला को रोज़गार की तलाश में जुट जाना पड़ा। अगले दो वर्ष ज़्यादातर बेरोज़गारी और भयंकर ग़रीबी में कटे। अन्ततोगत्वा 1862 में एक प्रकाशन संस्थान में उन्हें क्लर्क की नौकरी मिली। ज़ोला ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों पर जब लिखना शुरू किया तो उनका उद्देश्य साहित्य की दुनिया में पहचान बनाने के साथ ही कुछ अतिरिक्त कमाई करके जीना सुगम बनाना भी था। वर्ष 1866 तक ज़ोला एक आलोचक, लेखक और पत्रकार के रूप में इतना स्थापित हो चुके थे कि पूरी तरह क़लम के बूते ही अपनी आजीविका कमा सके। प्रकाशन संस्थान की नौकरी छोड़कर अब वह एक पूर्णकालिक लेखक और फ्री-लांस पत्रकार बन गए।
ज़ोला न तो मज़दूर आन्दोलन का सिद्धान्तकार थे, न ही कोई मज़दूर नेता, लेकिन ‘जर्मिनल’ (‘उम्मीद है, आएगा वह दिन’) उपन्यास में स्वत:स्फूर्तता से संगठन की मंज़िल तक हड़ताल के विकास का और फिर उसकी पराजय का विस्तृत प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने आम हड़ताली मज़दूरों के मनोविज्ञान का, उनकी चेतना की गतिकी का जो चित्रण किया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस मुक़ाम तक आते-आते उनके कृतित्व में आनुवंशिकता और जैविक नियतत्त्ववाद का स्थान मूल चालक शक्ति के रूप में नहीं रह गया था। उनका स्थान सामाजिक मनुष्य के बारे में ऐतिहासिक दृष्टिकोण ने ले लिया था। सर्वहारा वर्ग को ज़ोला अब एक ऐसे सामाजिक समूह के रूप में देख रहे थे जो अमानवीकृत कर देनेवाली सामाजिक परिस्थितियों की उपज था और जो उन परिस्थितियों का प्रतिरोध करने में, उनके विरुद्ध विद्रोह करने में सक्षम था। 

निधन : 29 सितम्बर, 1902, पेरिस।

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