Udarikaran Ka Sach

Edition: 2008
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Udarikaran Ka Sach

1990 में उभरे गम्भीर आर्थिक संकट ने भारत सरकार को दूरगामी आर्थिक सुधारों के रास्ते पर ला खड़ा किया। नीतिगत सुधार किए गए, नियंत्रित अर्थव्यवस्था में खुलापन लाया गया।

इन मुद्दों पर थोड़ी-बहुत बहस भी चली लेकिन प्रमुख मुद्दों को अनदेखा किया गया। हाँ, राजनीतिक लाभ-हानि के आधार पर तर्क, तर्क कम थे, वादे अधिक थे। लिहाज़ा उदारीकरण का सच ओझल हो रहा। विद्वान् वाग्जाल रचते रहे। सरकार मायाजाल फैलाती रही। सुनहरे सपनों, छिपी लालसाओं और कामनाओं को बढ़ावा दिया गया। पर जनसाधारण के लिए उदारीकरण आज भी अबूझ पहेली बना हुआ है।

उदारीकरण क्या जनविरोधी है? क्या उदारीकरण सिर्फ़ जनविरोधी है या उसके कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं? भारत जैसे विकासशील देश में उदारीकरण की ज़रूरत है? क्या वह जनसाधारण के जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सकता है। उदारीकरण क्या वैसा ही होना चाहिए जैसा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या विश्वबैंक बताता है?

उदारीकरण के सच को उजागर करने में इन सवालों का जवाब ढूँढ़ना ज़रूरी है। भारत के दो अग्रणी अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी और दीपक नय्यर इन्हीं सवालों से टकराते हैं। उनका नज़रिया न वामपंथी, न दक्षिणपंथी बल्कि लोकपंथी है। वे शंका ही नहीं करते, वैकल्पिक समाधान भी सुझाते हैं।

अर्थशास्त्र के जटिल और अधुनातन पहलू पर लिखी गई यह पुस्तक आर्थिक-तकनीकी शब्दाडम्बरों से मुक्त है। सुगम विश्लेषण और सहज भाषा के बल पर यह पुस्तक जनसाधारण और विद्वज्जनों के बीच समान रूप से समादर पाएगी।

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Language Hindi
Binding Hard Back
Edition Year 2008
Pages 148P
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1
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Author: Amit Bhaduri

अमित भादुड़ी

अमित भादुड़ी की शिक्षा कलकत्ता तथा अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में हुई और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से 1967 में उन्होंने पी-एच.डी. की उपाधि अर्जित की। इस समय वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक हैं, परन्तु इससे पूर्व उन्होंने इटली, नार्वे, स्वीडेन तथा अमेरिका के अनेक संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों में शोध तथा अध्यापन कार्य किया। वे राष्ट्रसंघ की कई संस्थाओं में विशेषज्ञ शोध सलाहकार और यूरोपियन कमीशन ऑन अनएम्प्लॉयमेंट तथा कमीशन फ़ॉर रुरल फ़ाइनेंस जैसे अन्तरराष्ट्रीय कमीशनों के सदस्य भी रहे हैं।

उनकी तीन पुस्तकें—‘दि इकोनॉमिक स्ट्रक्चर ऑव बैकवर्ड एग्रीकल्चर’, ‘मैक्रो इकोनॉमिक्स : दि डायनेमिक्स ऑफ़ प्रोडक्शन’ तथा ‘अनकन्वेंशनल इकोनॉमिक एस्सेज़'—और ख्यातिप्राप्त अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित हैं।

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