1990 में उभरे गम्भीर आर्थिक संकट ने भारत सरकार को दूरगामी आर्थिक सुधारों के रास्ते पर ला खड़ा किया। नीतिगत सुधार किए गए, नियंत्रित अर्थव्यवस्था में खुलापन लाया गया।
इन मुद्दों पर थोड़ी-बहुत बहस भी चली लेकिन प्रमुख मुद्दों को अनदेखा किया गया। हाँ, राजनीतिक लाभ-हानि के आधार पर तर्क, तर्क कम थे, वादे अधिक थे। लिहाज़ा उदारीकरण का सच ओझल हो रहा। विद्वान् वाग्जाल रचते रहे। सरकार मायाजाल फैलाती रही। सुनहरे सपनों, छिपी लालसाओं और कामनाओं को बढ़ावा दिया गया। पर जनसाधारण के लिए उदारीकरण आज भी अबूझ पहेली बना हुआ है।
उदारीकरण क्या जनविरोधी है? क्या उदारीकरण सिर्फ़ जनविरोधी है या उसके कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं? भारत जैसे विकासशील देश में उदारीकरण की ज़रूरत है? क्या वह जनसाधारण के जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सकता है। उदारीकरण क्या वैसा ही होना चाहिए जैसा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या विश्वबैंक बताता है?
उदारीकरण के सच को उजागर करने में इन सवालों का जवाब ढूँढ़ना ज़रूरी है। भारत के दो अग्रणी अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी और दीपक नय्यर इन्हीं सवालों से टकराते हैं। उनका नज़रिया न वामपंथी, न दक्षिणपंथी बल्कि लोकपंथी है। वे शंका ही नहीं करते, वैकल्पिक समाधान भी सुझाते हैं।
अर्थशास्त्र के जटिल और अधुनातन पहलू पर लिखी गई यह पुस्तक आर्थिक-तकनीकी शब्दाडम्बरों से मुक्त है। सुगम विश्लेषण और सहज भाषा के बल पर यह पुस्तक जनसाधारण और विद्वज्जनों के बीच समान रूप से समादर पाएगी।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Edition Year | 2008 |
Pages | 148P |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |