व्यंग्य आधुनिक साहित्य का अचूक अस्त्र है। विसंगतियों, विडम्बनाओं और पाखंड आदि पर प्रहार करते समय इसका उपयोग अत्यन्त रोचक अभिव्यक्तियों को जन्म देता है। ‘तो अंग्रेज़ क्या बुरे थे’ व्यंग्य-मिश्रित ललित गद्य का दिलचस्प उदाहरण है। इस पुस्तक में विभिन्न विषयों, मुद्दों और प्रसंगों पर तेज़-तर्रार टिप्पणियाँ हैं।
लेखक रविन्द्र बड़गैयाँ की दृष्टि उन बिन्दुओं पर टिकी है जिन्हें प्रायः हम सब महसूस करते हैं। रविन्द्र सामान्य अनुभवों के बीच ऐसे अन्तराल खोज लेते हैं जहाँ से कटाक्ष झाँकते हैं, ठहाके झिलमिलाते हैं और बेचैन कर देनेवाली व्यंजनाएँ प्रकाशित होती हैं।
इस पुस्तक में अनेक ऐसे वाक्य हैं जो व्यवस्था की विचित्र अवस्था का विश्लेषण करते हैं। जैसे ‘...सेवक को राजा बनाना आसान था पर राजा को वापस सेवक बनाना नामुमकिन।’ ऐसे कथनों के मूल में है सामाजिक मनोविज्ञान का सूक्ष्म ज्ञान। लेखक इसमें पारंगत लगता है। समग्रतः यह पुस्तक पाठक को मुस्कुराते हुए कुछ सोचने के लिए विवश करती है।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2013 |
Edition Year | 2025, Ed. 3rd |
Pages | 136p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1 |