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Shakuntala

Edition: 2024, Ed. 2nd
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Shakuntala

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उड़िया के प्रख्यात कथाकार शांतनु कुमार आचार्य की कालजयी कृति है—‘शकुन्तला’। इसमें लेखक ने तेलंगाना की कृषक क्रांति की असफलता के कारणों के साथ-साथ उस क्षेत्र की तत्कालीन भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों का बेबाकी से खुलासा किया है। “तेलंगाना में स्थित कौनुआँ एक पुराना गाँव है। संभव है यह गाँव उस प्राचीन ‘कण्वाश्रम’ से भी अधिक पुराना हो। क्या पता कौनुआँ का कण्व होने से पहले यहाँ मनुष्य के भाग्य-मंच पर हजारों-लाखों बार ‘शकुन्तला’ नाटक का अभिनय हुआ हो!” किंतु जिस समय का यह इतिहास है, उस समय कौनुआँ गाँव नक्सलियों का अड्डा बन चुका था। नक्सलियों की धर-पकड़, मार-काट, लूट-खसोट—पूरा माहौल रक्तरंजित था। बिना तहकीकात किए, शक के आधार पर ही निर्दोषों को सजा देने की जैसे पुलिस ने कसम खा ली थी! ऐसे समय में एक औरत नदी को पार कर, एकदम अकेली कौनुआँ गाँव में आ पहुँची ‘अप्सरा’ बनकर। उसी नगरी में जहाँ कभी ‘कण्व ऋषि’ का आश्रम था। वह अप्सरा कोई और नहीं, शकुन्तला ही थी, जो अपने पीहर आई थी।

लेकिन आज सबके सामने वह एक मुजरिम की तरह खड़ी थी—बेबस, गुमसुम ! नक्सलियों के निर्मम आत्मसमर्पण के लिए वह अप्सरा अपने-आपको जिम्मेदार ठहरा रही थी। उसे अच्छी तरह मालूम था कि आगे की दुर्घटना का क्या मतलब है। स्वयं उसने नक्सलियों को उकसाया था। जनता का मुकाबला करने को। “यह गुरिल्ला युद्ध छोड़ो। जैसे भी हो, हमें आखिरकार जनता का सामना तो करना पड़ेगा न। दुनिया में आज तक ऐसी कोई सामाजिक क्रांति सफल नहीं हो पाई, जो समाज से छिपकर संघटित हुई।” नक्सलियों को यही तर्क देकर अप्सरा हरा सकी थी। किंतु आज, अंतिम क्षण में उसके नेतृत्व और निर्देशन के कारण यह दुर्घटना हो रही है—यह सोचकर अप्सरा स्वयं को मुजरिम मान लेती है। ...अब वह अप्सरा नहीं रह गई। वह सिर्फ असीमा उपाध्याय है—एक सर्वोदय कार्यकर्ता।

तत्कालीन परिवेश को अपने जीवंत रूप में प्रस्तुत करनेवाली एक महान कथाकृति—‘शकुन्तला’।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 1997
Edition Year 2024, Ed. 2nd
Pages 314p
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 2.5
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Author: Shantanu Kumar Aacharya

शान्तनु कुमार आचार्य

शान्तनु कुमार आचार्य का जन्म 15 मई, 1933 को मोमिनपुर, कोलकाता में हुआ। 1958 से 1992 तक वे ओड़िशा के एक कॉलेज में अध्यापक रहे। उत्कल विश्वविद्यालय, ओड़िशा के रजिस्ट्रार पद से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने ओड़िया भाषा में सोलह उपन्यास, लगभग चार सौ कहानियाँ लिखीं। बच्चों के लिए भी कई किताबें लिखीं। उनकी रचनाओं के अनुवाद अंग्रेज़ी और विभिन्न भारतीय भाषाओं में हुए हैं। हिन्दी में अनूदित उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं—‘शकुन्तला’, ‘द​क्षिणवार्ता’, ‘नर किन्नर’।

उन्हें ‘ओड़िशा साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘सरला पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘कथा पुरस्कार’, ‘साहित्य भारतीय पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद् के ‘कोणार्क पुरस्कार’ और बाल-साहित्य के लिए भारत सरकार के ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

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