‘दलित लेखन दलित ही कर सकता है’ को पारम्परिक सोच के ही नहीं, प्रगतिशील कहे जानेवाले आलोचकों ने भी संकीर्णता से लिया है। दलित-विमर्श साहित्य में व्याप्त छद्म को उघाड़ रहा है। साहित्य में जो भी अनुभव आते हैं वे सार्वभौमिक और शाश्वत नहीं होते।
इन सन्दर्भों में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ दलित जीवन की संवेदनशीलता और अनुभवों की कहानियाँ हैं, जो एक ऐसे यथार्थ से साक्षात्कार कराती हैं, जहाँ हज़ारों साल की पीड़ा अँधेरे कोनों में दुबकी पड़ी है।
वाल्मीकि के इस संग्रह की कहानियाँ दलितों के जीवन-संघर्ष और उनकी बेचैनी के जीवन्त दस्तावेज़ हैं, दलित जीवन की व्यथा, छटपटाहट, सरोकार इन कहानियों में साफ़-साफ़ दिखाई पड़ते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जहाँ साहित्य में वर्चस्व की सत्ता को चुनौती दी है, वहीं दबे-कुचले, शोषित-पीड़ित जन-समूह को मुखरता देकर उनके इर्द-गिर्द फैली विसंगतियों पर भी चोट की है। जो दलित विमर्श को सार्थक और गुणात्मक बनाती है।
समकालीन हिन्दी कहानी में दलित-चेतना की दस्तक देनेवाले कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की ये कहानियाँ अपने आप में विशिष्ट हैं। इन कहानियों में वस्तु जगत का आनन्द नहीं, दारुण दुःख भोगते मनुष्यों की बेचैनी है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2000 |
Edition Year | 2020, Ed 5th |
Pages | 132p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |