जापान के आधुनिक बाल साहित्यकार नीइमी नानकिचि की अनूदित चार रचनाओं के प्रस्तुत संकलन में सतत स्वच्छ और निर्मल हृदय की परिकल्पना की गई है, जिसे नानकिचि ने लोमड़ी और मनुष्य के दो अलग–अलग प्रसंगों में अभिव्यक्त किया है।

‘पाँच चोर’ में जहाँ चोर के हृदय परिवर्तन और ‘दादाजी की लालटेन’ में मानव समाज के विकास की दास्तान है, वहीं जापान की परम्परा और संस्कृति के ताने–बाने का भी सजीव चित्रण किया गया है। अनुवाद सरल, प्रवाहपूर्ण और बाल सुलभ है।

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Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2002
Edition Year 2023, Ed. 2nd
Pages 84p
Translator Unita Sachchidanand
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1
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Author: Niimi Nankichi

नीइमी नानकिचि

जन्म : सन् 1913

नानकिचि जब ज़िन्दा थे, लोगों के जीवन पर बौद्ध-धर्म की विचारधारा का काफ़ी प्रभाव रहा। अभी चार वर्ष के ही थे कि इनकी माँ का देहान्त हो गया। ये केवल 29 वर्ष ही ज़िन्दा रह पाए। नानकिचि हमेशा मौत के ख़ौफ़ से घिरे रहते थे।

इनके पारिवारिक सम्बन्ध भी बड़े पेचीदा थे। माँ के मरने के बाद इनको माँ की सौतेली माँ के घरवालों ने गोद ले लिया, जिससे इनका नाम नीइमी पड़ गया। ज़िन्दगी में माँ के अभाव के कारण ही इनकी रचनाओं में शोक, करुणा, परित्याग एवं न्यायपसन्द भावनाएँ झलकती हैं।

नीइमी नानकिचि ने बच्चों के लिए अपना पहला संग्रह ‘ओजीइसान नो राम्पु’ नाम से 1942 में ठीक अपनी मृत्यु से छह महीने पहले छपवाया। ‘गौन गित्सुने’ और ‘तेबुकुरो ओ काइ नी’ तब छपीं जब ये लगभग बीस वर्ष के थे। ‘हाना नो किमुरा नो नुसुबितो ताची’ एवं ‘ओजीइसान नो राम्पु’ इनके अन्तिम दिनों की रचनाएँ हैं।

इनकी सृजनात्मक ज़िन्दगी की शुरुआत कराने का श्रेय सुजुकी मियेकिचि की बाल पत्रिका 'आकाइ तोरी' को जाता है। इनकी कहानियों के नायक बच्चे तो हैं ही पर ज़िन्दगी के अन्तिम दिनों में ‘हाना नो किमुरा नो नुसुबितो ताची’ एवं ‘ओजीइसान नो राम्पु’ जैसी रचनाओं में इन्होंने वयस्क और बुज़ुर्ग भी शामिल किए।

सिर्फ़ दस साल के दरम्यान जब युद्ध के काले बादल मँडरा रहे थे, इन्होंने बच्चों के लिए अनेक गीत, कहानियाँ, कविताएँ, नाटक लिखे। अपनी सभी रचनाओं के तहत इन्होंने मनुष्य की सद्भावना एवं संवेदनाओं पर ज़ोर दिया।

नीइमी नानकिचि की कृतियों द्वारा मधुर स्मृति का एहसास शायद इसलिए भी होता है, क्योंकि हरेक मनुष्य के हृदय में भावनाओं की पुनरावृत्ति की कामना तो ज़रूर समाई रहती है।

निधन : सन् 1943

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