Nirgun Santon Ke Swapana

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Nirgun Santon Ke Swapana

साहित्यिक बिरादरी से बाहर निकलकर व्यापक भारतीय समाज को देखें तो कबीर, तुकाराम, तुलसी, मीरा, अखा, नरसी मेहता आज भी समकालीन हैं। भक्त कवि हिन्दी समाज के रोज़मर्रा के जीवन में किसी भी अन्य कवि से अधिक उपस्थित हैं। ‘निरक्षर’ हिन्दीभाषी भी कबीर के चार-छह दोहों और तुलसी की दो-चार चौपाइयों से तो वाक़िफ़ हैं ही। हिन्दी समाज नियतिबद्ध है—भक्त कवियों से सतत संवाद करने के लिए। सवाल यह है कि क्या हिन्दी की समकालीन साहित्यिक चिन्ताओं में यह नियति प्रतिबिम्बित होती है?

भारत और अन्य समाजों की देशज आधुनिकता और उसमें औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा उत्पन्न किए गए व्यवधान को समझना अतीत, वर्तमान और भविष्य का सच्चा बोध प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है। साहित्य को इतिहास-लेखन का स्रोत मात्र (सो भी दूसरे दर्जे का!) और किसी विचारधारात्मक प्रस्ताव का भोंपू मानकर नहीं, बल्कि उसकी स्वायत्तता का सम्मान करते हुए पढ़ने की पद्धति पर चलते हुए भक्ति-काव्य को पढ़ें तो कैसे नतीजे हासिल होते हैं?

भक्ति साहित्य के विख्यात अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल के सम्पादन में नियोजित ‘भक्ति मीमांसा’ पुस्तक-शृंखला ऐसी ही पढ़त की दिशा में एक कोशिश है। विभिन्न भक्त कवियों, रचनाओं और प्रवृत्तियों के अध्ययन इसमें प्रकाशित किए जाएँगे।

इस शृंखला की यह पहली पुस्तक अग्रणी इतिहासकार डेविड लॉरेंजन के निबन्धों का संकलन है। पिछले दो दशकों में प्रकाशित इन शोध-निबन्धों में ‘निर्गुण सन्तों के स्वप्न’ और उनकी परिणतियों के अनेक पहलू अत्यन्त विचारोत्तेजक और प्रमाणपुष्ट ढंग से पाठक के सामने आते हैं। ‘गोरखनाथ और कबीर की धार्मिक अस्मिता’ निबन्ध अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने के पहले ही इस संकलन के ज़रिए हिन्दी पाठकों के सामने आ रहा है। डेविड लॉरेंजन द्वारा प्रस्तावित ‘जाति-निरपेक्ष’ या अवर्णाश्रमधर्मी’ हिन्दी परम्परा की अवधारणा से गुज़रते हुए, पाठक को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह का ‘लोकधर्म’ विषयक विचार-विमर्श स्वाभाविक रूप से याद आएगा।

कबीरपंथ के सांस्कृतिक इतिहास और स्वरूप में निहित सामाजिक प्रतिरोध का विवेचन करते हुए डेविड कबीरपंथ के सामाजिक आधार की व्यापकता रेखांकित करते हैं। वे बताते हैं कि कबीरपंथी ‘भगत’ कबीरपंथ को आदिवासी समुदायों तक भी ले गए; और इस तरह उन्होंने ब्राह्मण वर्चस्व से स्वायत्त समुदाय की रचना में योगदान किया।

इन निबन्धों में निहित अन्तर्दृष्टियों से निर्गुणपंथी परम्परा के बारे में ही नहीं, भारतीय इतिहास मात्र के बारे में भी आगे शोध के लिए प्रस्थानबिन्दु प्राप्त होते हैं।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2010
Edition Year 2022, Ed. 3rd
Pages 256p
Translator Dhirendra Bahadur Singh
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 2
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Author: David N. Lorenzen

डेविड लॉरेंजन

उन इने-गिने इतिहासकारों में से हैं, जिनकी खोजों और विश्लेषणों ने प्राचीन से लेकर आरम्भिक आधुनिक काल तक के भारतीय इतिहास-लेखन पर स्थायी छाप छोड़ी है।

डेविड ने आठवें दशक के मध्य से कबीरपंथ के व्यवस्थित अध्ययन का श्रीगणेश किया। यह अध्ययन कबीर और अन्य निर्गुण सन्तों के काव्य, उनके सामाजिक प्रभाव और कबीरपंथ के विकास पर अत्यन्त विचारोत्तेजक विचार से लेकर, अठारहवीं सदी में, उत्तरी बिहार में सक्रिय इटालियन पादरी मारको देला तोंबा की ‘आत्मकथा’ लिखने तक जा पहुँचा है। इसी अध्ययन-यात्रा के कुछ महत्त्वपूर्ण पड़ावों का बोध करानेवाले नौ निबन्ध यहाँ संकलित हैं।

इन निबन्धों के अलावा, अनन्तदास की कबीर-परिचई का विस्तृत, विचारोत्तेजक भूमिका के साथ, अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित करने के साथ, कबीरपंथ और निर्गुण संवेदना के सांस्कृतिक इतिहास के बारे में अनेक निबन्ध लिखने के साथ ही डेविड लॉरेंजन ने ‘रिलीजन, स्किन कलर एंड लैंग्वेज : आर्य एंड नॉन-आर्य इन वैदिक पीरियड’, ‘दि रिलीजियस आइडियोलॉजी ऑफ़ गुप्त किंगशिप’ तथा ‘हू इंवेंटेड हिन्दुइज़्म’ जैसे बहुचर्चित और विचारोत्तेजक निबन्ध भी प्रकाशित किए हैं।

पिछले कई बरसों से डेविड लॉरेंजन मेक्सिको के प्रतिष्ठित शोध संस्थान ‘कॉलेजियो दि मेक्सिको’ में प्रोफ़ेसर हैं। उनके व्यक्तित्व में गहन जिज्ञासा और गम्भीर अध्ययन से उत्पन्न गहराई के साथ ही है चुंबकीय सहजता और खुलापन। ‘हाथी चढ़िए ज्ञान का सहज दुलीचा डारि’ की सलाह को अपने जीवन और व्यक्तित्व में डेविड ने सोलहों आने चरितार्थ किया है।

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