आज बाज़ार के दबाव और सूचना-संचार माध्यमों के फैलाव ने राजनीति, समाज और परिवार का चरित्र पूरी तरह बदल डाला है, मगर पितृसत्ता का पूर्वग्रह और स्त्री को देखने का उसका नज़रिया नहीं बदला है, जो एक तरफ़ स्त्री की देह को ललचाई नज़रों से घूरता है, तो दूसरी तरफ़ उससे कठोर यौन-शुचिता की अपेक्षा भी रखता है। पितृसत्ता का चरित्र वही है। हाँ, समाज में बड़े पैमाने पर सक्रिय और आत्मनिर्भर होती स्त्री की स्वतंत्र चेतना पर अंकुश लगाने के उसके हथकंडे ज़रूर बदले हैं। मगर ख़ुशी की बात यह है कि इसके बरक्स बड़े पैमाने पर आत्मनिर्भर होती स्त्रियों ने अब इस व्यवस्था से निबटने की रणनीति अपने-अपने स्तर पर तय करनी शुरू कर दी है।
आख़िर कब तक स्त्रियाँ ऐसे समय और नैतिकता की बाट जोहती रहेंगी जब उन्हें स्वतंत्र और सम्मानित इकाई के रूप में स्वीकार किया जाएगा? क्या यह वाकई ज़रूरी है कि स्त्रियाँ पुरुषों के साहचर्य को तलाशती रहें? क्यों स्त्री की प्राथमिकताओं में नई नैतिकता को जगह नहीं मिलनी चाहिए?
इस पुस्तक में साहित्य, पत्रकारिता, थिएटर, समाज-सेवा और कला-जगत की ऐसी ही कुछ प्रबुद्ध स्त्रियों ने पितृसत्ता द्वारा रची गई छद्म नैतिकता पर गहराई और गम्भीरता से चिन्तन किया है और स्त्री-मुक्ति के रास्तों की तलाश की है। प्रभा खेतान कहती हैं, ‘नारीवाद, राजनीति से सम्बन्धित नैतिक सिद्धान्तों को पहचानना होगा, ताकि सेवा जैसा नैतिक गुण राजनीतिक रूपान्तरण का आधार बन सके।’
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2010 |
Edition Year | 2019, Ed. 2nd |
Pages | 212P |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 2 |