नई कविता अनेक प्रवृत्तियों का समुच्चय थी, उसकी रचना-प्रक्रिया जटिल थी, इसी कारण उसकी अर्थ-प्रक्रिया भी ‘काव्यार्थ’ भर नहीं रह गई। नई कविता की रचना- प्रक्रिया और अर्थ-प्रक्रिया जानने का मतलब हो गया—रचनाकार के युग, उसकी समीक्षा-समझ, विचारधाराओं, युगीन परिस्थितियों एवं भाषा-रूपों को समग्रता में जानना।
समग्रता में न जा पाने के इस संकट को मुक्तिबोध ने पहचाना था। कदाचित् इसीलिए उन्होंने कविता की रचना-प्रक्रिया पर पहली बार इतना काम किया कि आधुनिक कविता के इस तकनीकी पहलू पर सोचने को विवश कर दिया। और इस तरह रचना-प्रक्रिया की उन चली आती हुई शास्त्रीय धारणाओं को बेकार सिद्ध किया, जिनके चलते आधुनिक हिन्दी साहित्य जैसे-तैसे जी रहा था, नई कविता वर्जित प्रदेश बनी हुई थी। रचना-प्रक्रिया पर उठाई गई उक्त बहस ने नई कविता की समझ को फैलाया और यह महसूस कराया कि नई कविता एक निश्चित रचना-प्रक्रिया की पैदाइश है, जिसके रचना-नियम पुनरुत्थानवादी या स्वच्छन्दतावादी काव्य की रचना-प्रक्रिया के नियमों से नितान्त अलग और कहीं-कहीं तो विपरीत हैं। पर क्या कहा जाए कि अभी भी हिन्दी में मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तुत की गई जीवन-दृष्टि और समीक्षा-दृष्टि को पर्याप्त गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है। इसका सबसे अधिक नुक़सान नई कविता की सार्थकता के सवाल को भुगतना पड़ा।
समीक्षा वैसे तो रचना के बाद की चीज़ है लेकिन मुक्तिबोध की कविताई में जाने से पहले उनकी समीक्षाई जानना ज़रूरी है। ज़रूरी नहीं बहुत ज़रूरी है। बहुत ज़रूरी भी क्या अनिवार्य है। इस पुस्तक के रचनाकार अशोक चक्रधर ऐसा मानते हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1988 |
Edition Year | 2024, Ed. 3rd |
Pages | 176p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |