जापान में जब पूँजीवादी औद्योगीकरण की शुरुआत हुई तब समाज का सांस्कृतिक और राजनीतिक ढाँचा तेज़ी से बदलने लगा। पूँजीवादी समाज में विकास के नाम पर हाशिए पर धकेले गए प्रताड़ित लोगों के दु:ख–दर्द को मार्मिक स्पर्श दिया है जापान के तीन प्रगतिवादी लेखकों ने। इनकी सशक्त शैली और वैचारिक सघनता का प्रवाहपूर्ण हिन्दी अनुवाद मूल जापानी स्रोत से किया गया है।

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Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2002
Edition Year 2023, Ed. 2nd
Pages 92p
Translator Unita Sachchidanand
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1
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Author: Aabe Kobo

आबे कोबो

1924 में तोक्यो में जन्मे आबे कोबो का बचपन मंचूरिया में बीता। तोक्यो विश्वविद्यालय से चिकित्सा स्नातक होने के बावजूद उन्होंने साहित्य को ही अपना व्यवसाय बनाया। उनका देहान्त 1993 में हुआ जब वे 69 वर्ष के थे। ‘लाल कोया’ (‘आकाई मायू’, 1949), ‘दूसरे का चेहरा’ (‘तानीन नो काओ’, 1964) और ‘विखंडित नक़्शा’ (‘मोएत्सुकिता चीजू’, 1967) कोबो की प्रमुख रचनाओं में गिनी जाती हैं। कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक और चित्रपट कथा के क्षेत्र मे आबे कोनो की एक विशिष्ट भूमिका रही है। उत्तर-महायुद्ध काल के प्रतिभाशाली जापानी साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति ‘रेत की औरत’ (‘सुना नो ओन्ना’, 1962) के प्रकाशन के बाद दुनिया के हर कोने तक पहुँची। साहित्य की ओर उनका रुझान तोक्यो में चिकित्सा अध्ययन के समय से ही रहा और पचास के दशक से ही उनकी कविताओं और उपन्यासों को जापान के श्रेष्ठ साहित्य-पुरस्कारों से नवाजा जाने लगा। इसके बावजूद जापानी मानसिकता आबे कोबो की रचनाओं को पश्चिमी विचार से प्रभावित मानती रही और उनके नवीन प्रयोगों को ठीक से समझ न सकी। 1962 के बाद आबे कोबो की रचनाओं के प्रायोगिक लेखन ने अपना ऐसा रंग जमाया कि तत्कालीन जापानी साहित्य के हर पहलू पर उनकी रचना-शैली की छाप देखने को मिलती है।

निधन : 1993         

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