Maharishi Dayanand

Author: Yaduvansh Sahay
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Maharishi Dayanand
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महर्षि दयानन्द के सामने बड़ा सवाल था कि भारतीय संस्कृति के परस्पर-विरोधी तत्त्वों का समाधान किस प्रकार हो। उन्होंने देखा कि एक ओर जहाँ इस संस्कृति में मानव-जीवन और समाज के उच्चतम मूल्यों की रचनाशीलता परिलक्षित होती है, वहीं दूसरी ओर उसमें मानवता-विरोधी, समाज के शोषण को समर्थन देनेवाले, अन्धविश्वासों का पोषण करनेवाले विचार भी पाए जाते हैं। अतः उनके मन को उद्वेलित करनेवाली बात यह थी कि हमारी सांस्कृतिक मूल्य-दृष्टि की प्रामाणिकता क्या है? सत्य के लिए, मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रामाणिकता की आवश्यकता क्या है?

गांधी को अपने सत्य के लिए किसी धर्म-विशेष के ग्रन्थ की प्रामाणिकता की आवश्यकता नहीं हुई। लेकिन दयानन्द के युग में पश्चिमी संस्कृति की बड़ी आक्रामक चुनौती थी। स्वतः यूरोप में 19वीं शती से विज्ञान और नए मानववाद के प्रभाव से मध्ययुगीन धर्म की उपेक्षा की जा रही थी, और मध्ययुगीन आस्था के स्थान पर बुद्धि और तर्क का आग्रह बढ़ा था; परन्तु भारत में यूरोप के मध्ययुगीन धर्म को विज्ञान और मानववाद के साथ आधुनिक कहकर रखा जा रहा था। धर्म को अपने प्रभाव को बढ़ाने और सत्ता को स्थायी बनाने में इस्तेमाल किया जा रहा था। अतः भारतीय संस्कृति की ओर से इस चुनौती को स्वीकार करने में भारतीय अध्यात्म के वैज्ञानिक तथा मानवतावादी स्वरूप की स्थापना आवश्यक थी। फिर भारतीय अध्यात्म को इस रूप में विवेचित करने के लिए आधार-रूप प्रामाणिकता की अपेक्षा थी और इस दिशा में महर्षि दयानन्द ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। यह पुस्तक हमें उसकी पूरी विचार-यात्रा से परिचित कराती है और उनके प्रेरणादायी जीवन के अहम पहलुओं से भी अवगत कराती है।

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Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2018
Pages 348p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2
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Author: Yaduvansh Sahay

यदुवंश सहाय

जन्म : 12 फरवरी, 1824

भारतीय पुनर्जागरण को दीप्त भूमिका प्रदान करने में महर्षि दयानन्द का स्थान प्रमुख है। वैदिक साहित्य के प्रति वे इतने श्रद्धालु और निष्ठावान थे कि पूरी हिन्दू जाति को आर्यधर्म की ओर लौटना उनका उद्देश्य बन गया। वेदों के प्रति उनकी भक्ति अनेक को दुराग्रह लग सकती है, किन्तु दयानन्द ने शुद्ध राष्ट्रीय पुनर्जागरण की एक नई धारा को समानान्तर उपस्थित करके बहुत बड़ा कार्य किया, इसमें सन्देह नहीं। वे इसी कारण यदि ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज या ईसाई मत पर आक्रामक दृष्टिकोण रखते थे तो इसे अतिवादी कहकर टाला नहीं जा सकता, क्योंकि दयानन्द के आर्यसमाजी आन्दोलन ने दो विचारधाराओं के टकराव (इनकाउंटर) की स्थिति खड़ी करके कइयों को आत्मपरीक्षण का अवसर भी दिया।

दयानन्द ने अपने धार्मिक आन्दोलन को पूर्ण सामाजिक पीठिका भी प्रदान की। वर्ण-व्यवस्था की प्रगतिशील व्याख्या, ऐंग्लो वैदिक स्कूलों की स्थापना, नारी शिक्षा का आयोजन, रूढ़िवादी संस्कारों का विरोध, सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार उनकी रचनात्मक प्रतिभा की देन है। उन्होंने सर्वसंघ समन्वय के प्रयत्नों द्वारा पुनर्जागरण को संगठित गम्भीरता देने का भी प्रयत्न किया।

निधन : 30 अक्टूबर, 1883

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