Kot Ke Bajoo Par Batan

पवन करण ने कविता का पाठ जीवन की पाठशाला से सीखा है। पवन करण के यहाँ कुम्हार के आवाँ से निकले घड़े की तरह आँच सोखकर, भीतर तलहटी में स्मृतियों की राख चिपकाए, अनपढ़ मुँह के बाहर आती बोली के झिझकते शब्दों में, अभाव का उत्सव खेलते जीवन के दृश्य दिखाई देते हैं। भले ही टेक्नॉलोजी और मैनेजमेंट के प्रशिक्षण ने बहुत जगहों पर आदमी को ही हाशिए पर सरका दिया हो, किन्तु मध्यवर्गीय भद्रलोक की वर्जनाओं से भिड़न्त की धमक वाली ये कविताएँ पाठक के संवेदनतंत्र में कुछ अलग ही प्रकार से हलचल पैदा करती है, क्योंकि भारतीय समाज अभी अपना नग्न फोटोसेशन कराने को उत्सुक प्रेमिका तथा बेटी और प्रेमिका के बीच पिता के प्यार के अन्तर तथा विवाह की तैयारी करती प्रेमिका से पति की ‘आन्तरिकता को जानने को उत्सुक आहत प्रेमी को अपने संस्कारों के बीच जगह नहीं दे पाया है। ‘कोट के बाज़ू पर बटन’ की भी कुछ कविताएँ भद्रलोक के काव्य-वितान में छेद करते हुए प्रेम और देह के बीच खड़ी की गई झीनी, रोमांटिक चादर को किनारे सरकाती हैं।
पवन करण के कहने की कला भाषा के सहज सम्बोधन में निहित है जिसके कारण पाठक चालाक शब्दों और उनकी चमक में चौंधियाने से बचता है। भाषा के स्तर पर कथ्य के बारीक यथार्थ को पवन करण ने बहुत सहजता से व्यक्त कर दिया है। निर्मल वर्मा जिस यथार्थ को कहानी में ‘झाड़ी में छिपे पक्षी’ की तरह बताते हैं, उस यथार्थ को पवन करण बहुत सरलता से पकड़कर झाड़ी के ऊपर बिठा देते हैं कि यह है देखो। उन्होंने अपनी कहन के शब्द, मुहावरे और औज़ार सड़क और गलियों से उठाए हैं, अत: भाषा में भद्रकाव्य के घूँघट न होने से वह नए अनुभव का आस्वाद देती हैं। कविताएँ कहीं भी कवि के ‘मैं’ को अस्वीकार नहीं करतीं अत: रचनात्मक संघर्ष द्विस्तरीय हो जाता है—व्यक्तिगत जो आन्तरिक है और बाह्य जो सामाजिक है।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back |
Publication Year | 2013 |
Edition Year | 2013, Ed. 1st |
Pages | 124p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |
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