जिज्ञासा मानव-विकास की आदि एवं मूलभूत आवश्यकता है। उसकी रक्षा से ही हम समाज को विकसित, सम्पन्न एवं उन्नत बना सकते हैं। पर प्रायः देखा जाता है कि व्यस्त माता-पिता बच्चों के प्रश्नों से खीज जाते हैं और उनको सदैव अपने काम में बाधा उपस्थित करनेवाले प्राणी समझते हैं। उनको उद्दंड और मूर्ख ठहराकर उन्हें चुप करा देते हैं और उनकी जिज्ञासा प्रवृत्ति को कुचल देते हैं। ऐसे बालक ख़ुद को उपेक्षित, अनभीष्ट और प्रेमवंचित महसूस करते हैं। इसका परिणाम बहुत ही भयावह होता है। बालक संसार में सुरक्षा और स्थिरता चाहता है। बालक के भावनात्मक विकास के लिए पिता के अधिकार, माँ के ममत्व और भाई-बहन की उदारता एवं सौहार्द की बहुत आवश्यकता है। ऐसा न होने पर उसके मन में भाँति-भाँति की ग्रन्थियाँ पड़ जाती हैं, जो भविष्य में उसके सारे व्यवहारों को प्रभावित करती हैं। कई बार देखा गया है कि पिता के बढ़ते वर्चस्व को देखकर माँ में असुरक्षा की भावना घर करने लगती है। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वह अपनी ही बात मनवाना चाहती है, पिता के बीच में बोलने पर रोक देती है, ऐसी स्थिति में बच्चे उद् दंड और बदतमीज़ हो जाते हैं। पिता को अहमियत नहीं देते। इसके विपरीत माँ के डाँटने-मारने के समय यदि पिता बच्चों का पक्ष लेता है तब भी बच्चे बिगड़ जाते हैं और माँ का सम्मान नहीं करते। वास्तव में होना यह चाहिए कि यदि माँ किसी ग़लत बात पर डाँट रही है, तो पिता को चाहिए कि बीच में न बोले और पिता कुछ कह रहा है, तो माँ उस समय चुप रहे।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Publication Year | 2010 |
Edition Year | 2010, Ed. 1st |
Pages | 200p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1 |