Kaddaver Ki Dastan

Revolutionary Literature,आज़ादी का अमृत महोत्सव
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Kaddaver Ki Dastan
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क्रान्तिकारी से गांधी मार्ग के अनुयायी बने पं. सुन्दरलाल के भीतर वह आग आजीवन विद्यमान रही जिसे उन्होंने अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में अग्निपथ पर चलते हुए अर्जित किया था। ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ जैसे गौरव-ग्रन्थ के लेखक के रूप में देश-भर में ख्याति पानेवाले सुन्दरलाल की इस कृति की ब्रिटिश हुकूमत द्वारा की गई ज़ब्ती के रोमांचक घटनाक्रम ने ही तब न जाने कितने नौजवानों को क्रान्तिमार्ग का अनुगामी बना दिया था। उन्हें गांधी से लेकर मोतीलाल नेहरू, गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविन्द, लाला लाजपतराय, महामना मदनमोहन मालवीय, गणेशशंकर विद्यार्थी, रासबिहारी बोस, जवाहरलाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन, राजा महेन्द्र प्रताप, पं. बालकृष्ण भट्ट, मंज़र अली सोख़्ता, महात्मा नन्दगोपाल, अबुल कलाम आज़ाद, पं. बनारसीदास चतुर्वेदी सहित न जाने कितने देशभक्तों और समाज-सेवियों के साथ मुक्ति-युद्ध में सघन हिस्सेदारी करने का अवसर प्राप्त हुआ।

पंडित सुन्दरलाल ने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए अथक संघर्ष किया। वे भारत-चीन मैत्री के लिए भी अपने ढंग से आजीवन कर्मशील बने रहे। यही कारण था कि 1951 में चीन जानेवाले सद्भावना मिशन का उन्हें अगुआ बनाया गया। विश्व शान्ति मिशन के लिए तो वे दुनिया-भर की खाक छानते घूमे।

पंडित सुन्दरलाल की इस सार्थक जीवन-यात्रा और साथ ही उनके क्रान्तिकारी विचार-अभियान को समग्रता में जानने-समझने के लिए उनके आत्मवृत्त के साथ ही पंडित जी की कुछेक संस्मृतियों और निबन्धों को इस पुस्तक में पिरोने का ज़रूरी दायित्व क्रान्तिकारी आन्दोलन के सुप्रसिद्ध इतिहास लेखक सुधीर विद्यार्थी ने अनेक वर्षों की खोजबीन से सम्पन्न किया है।

‘क़द्दावर की दास्तान’ पंडित सुन्दरलाल की जीवनगाथा के साथ ही उनके मिशन का भी समग्र और प्रामाणिक लेखा-जोखा है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2012
Edition Year 2012, Ed. 1st
Pages 288p
Translator Not Selected
Editor Sudhir Vidyarthi
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 2
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Editorial Review

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Author: pandit Sunder Lal

पं. सुन्दरलाल

जन्म : 1886; मुज़फ़्फ़रनगर।

क्रान्तिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और इतिहासकार। गदर पार्टी से जुड़े थे। महात्मा गांधी से मिलने के बाद गांधीवादी हुए। स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान कई बार जेल गए।

उनकी किताब ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, जिसे ब्रिटिशों द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया। बाद में प्रतिबन्ध हटने पर वह फिर से प्रकाशित हुई। उन्होंने 40 से अधिक किताबें लिखीं। हिन्दी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के सम्पादक रहे।

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