Itihas Ki Punarvyakhya

Author: Romila Thapar
Edition: 2019, Ed. 5th
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Itihas Ki Punarvyakhya

यदि किसी राष्ट्र के वर्तमान पर उसका अतीत अथवा इतिहास अनिष्ट की तरह मँडराने लगे तो उसके कारणों की पड़ताल नितान्त आवश्यक है। इतिहास की पुनर्व्‍याख्‍या इसी आवश्यकता का परिणाम है। विज्ञानसम्मत इतिहास-दृष्टि के लिए प्रख्यात जिन विद्वानों का अध्ययन-विश्लेषण इस कृति में शामिल है, उसे दो विषयों पर केन्द्रित किया गया है। पहला, ‘भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए नई दृष्टि’, और दूसरा, ‘साम्प्रदायिकता और भारतीय इतिहास-लेखन’। सर्वविदित है कि इतिहास के स्रोत अपने समय की तथ्यात्मकता में निहित होते हैं, लेकिन इतिहास तथ्यों का संग्रह-भर नहीं होता। उसके लिए तथ्यों का अध्ययन आवश्यक है और अध्ययन के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण। इसके बिना उन प्रवृत्तियों को समझना कठिन है, जो पिछले कुछ वर्षों से भारतीय इतिहास के मिथकीकरण का दुष्प्रयास कर रही हैं। इसे कई रूपों में रेखांकित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अतीत को लेकर एक काल्पनिक श्रेष्ठताबोध, वर्तमान के लिए अप्रासंगिक पुरातन सिद्धान्तों का निरन्तर दोहराव, सन्दिग्ध और मनगढ़ंत प्रमाणों का सहारा, तथ्यों का विरूपीकरण आदि। स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिन्दू और मुस्लिम परम्परावादियों में इसे समान रूप से लक्षित किया जा सकता है। मस्जिदों में बदल दिए गए तथाकथित मन्दिरों के पुनरुत्थान-पुनर्निर्माण या फिर पुरातत्त्व विभाग द्वारा संरक्षित मस्जिदों में नए सिरे से उपासना के प्रयास ऐसी ही प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं।

वस्तुत: ज्यों-ज्यों इतिहास और परम्परा के वैज्ञानिक मूल्यांकन की कोशिशें हो रही हैं, त्यों-त्यों उसके समानान्तर मिथकीकरण के प्रयासों में भी तेज़ी आ रही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे प्रयासों के पीछे राजनीति-प्रेरित कुछ इतर स्वार्थों की पूर्ति भी एक उद्देश्य है, जिसका भंडाफोड़ करना आज की ऐतिहासिक ज़रूरत है, क्योंकि प्रजातीय और धार्मिक श्रेष्ठता का दम्भ संसार में कहीं भी टकराव और विनाश को आमंत्रण देता रहा है। प्रो. रोमिला थापर के शब्दों में कहें तो, “20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जर्मनी में सामाजिक परिवर्तन की अनिश्चितता और मध्यवर्ग का विस्तार आर्य-मिथक का उपयोग कर रहे फासीवाद के उदय के मूल कारण थे। इस अनुभव से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जातीय मूल और पहचान के सिद्धान्तों का उपयोग बड़ी सावधानी से किया जाए, वरना उसके कारण ऐसे विस्फोट हो सकते हैं, जो एक पूरे समाज को तबाह कर दें। इन परिस्थितियों में इतिहास के नाम पर वृहत्तर समाज द्वारा ऐतिहासिक विचारों के ग़लत इस्तेमाल के तरीक़ों से इतिहासकार को सावधान रहना होगा।”

कहना न होगा कि यह मूल्यवान कृति इतिहास और इतिहास-लेखन की ज्वलन्त समस्याओं से तो परिचित कराती ही है, आज के लिए अत्यन्त प्रासंगिक विचार-दृष्टि को भी हमारे सामने रखती है।

 

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 1991
Edition Year 2019, Ed. 5th
Pages 142p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1.5
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Romila Thapar

Author: Romila Thapar

रोमिला थापर

रोमिला थापर का जन्म 1931 में एक सुप्रसिद्ध पंजाबी परिवार में हुआ और बचपन में उन्हें भारत के विभिन्न प्रान्तों में रहने का अवसर मिला, क्योंकि उनके पिता उन दिनों सेना में थे। उन्होंने अपनी पहली डिग्री पंजाब विश्वविद्यालय से ली और डॉक्टरेट 1958 में लन्दन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ ओरियंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़ से। बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में रीडर के पद पर कार्य किया और 1968 में एक वर्ष उन्होंने लेडी मार्ग्रेट हॉल, ऑक्सफ़ोर्ड में व्यतीत किया। वे 1970 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनीं तथा सेवानिवृत्ति के बाद वहीं प्रोफ़ेसर एमेरिट्स के पद पर भी उन्होंने कार्य किया।

डॉ. थापर ने यूरोप और एशिया का व्यापक भ्रमण किया है। 1957 में वे चीन के बौद्ध गुफास्थलों का अध्ययन करने गईं और गोबी मरुभूमि में तुन-हुआंग तक यात्रा की। उनकी अन्य कृतियों में ‘अशोक एंड द डिक्लाइन ऑफ़ द मौर्याज़’ उल्लेखनीय है।

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