व्यंग्य क्या है? उसका हास्य से क्या सम्बन्ध है? वह एक स्वतंत्र विधा है या समस्त विधाओं में व्याप्त रहनेवाली भावना या रस? वह मूलतः गद्यात्मक क्यों है, पद्यात्मक क्यों नहीं? वह बैठे-ठाले क़िस्म की चीज़ है या एक गम्भीर वैचारिक कर्म? क्या व्यंग्यकार के लिए प्रतिबद्धता अनिवार्य है? यह प्रतिबद्धता क्या चीज़ है?...
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो प्रायः पाठकों और समीक्षकों को ही नहीं, व्यंग्यकारों को भी स्पष्ट नहीं। उदाहरण के लिए, हरिशंकर परसाई व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। रवीन्द्रनाथ त्यागी पहले मानते थे, बाद में मुकर गए। शरद जोशी मानते थे, पर कहते हिचकते थे। नरेन्द्र कोहली मानते हैं और कहते भी हैं। ऐसे ही, कुछ व्यंग्यकार हास्य को व्यंग्य के लिए आवश्यक नहीं मानते, जो कुछ हास्य के बिना व्यंग्य का अस्तित्व नहीं मानते...
असलियत क्या है? इसे वही स्पष्ट कर सकता है, जो स्वयं एक अच्छा व्यंग्यकार होने के साथ-साथ कुशल समीक्षक भी हो। सुरेश कांत में इन दोनों का मणिकांचन संयोग है। अपनी इस प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपने इस शोधपूर्ण कार्य में व्यंग्य के तमाम पहलुओं को उनके वास्तविक रूप में उजागर किया है। व्यंग्य का अर्थ, उसका स्वरूप, उसका प्रयोजन, उसकी पृष्ठभूमि, उसकी परम्परा, उसके तत्त्व, उसकी उपयोगिता आदि पर प्रकाश डालते हुए वे उसकी सम्पूर्ण संरचना उद्घाटित कर देते हैं, जिसके ‘अभाव’ के चलते परसाई को व्यंग्य विधा प्रतीत नहीं होता था। व्यंग्य की रचना-प्रक्रिया में वैचारिकता की भूमिका रेखांकित करते हुए वे व्यंग्य और विचार का सम्बन्ध भी स्पष्ट करते हैं। भारतेन्दु से लेकर अब तक के सम्पूर्ण हिन्दी-व्यंग्य-कर्म का ज़ायज़ा लेते हुए वे हिन्दी-व्यंग्य की ख़ूबियों और उसके समक्ष उपस्थित चुनौतियों को एक साथ प्रकट करते हैं। आज एक ओर जहाँ व्यंग्य-लेखन एक ज़रूरी माध्यम के रूप में उभरा है, रचनात्मक-संवेदनात्मक स्तर पर उसका बहुआयामी विस्तार हुआ है, उसकी लोकप्रियता और माँग भी अपने चरम पर है, वहीं अधिकाधिक मात्रा और अल्पसूचना (शॉर्ट नोटिस) पर लिखे जाने के कारण उसकी गुणवत्ता प्रभावित होने का भारी ख़तरा भी मौजूद है। व्यंग्य चूँकि एक हथियार है, अतः उसका विवेकसंगत प्रयोग नितान्त आवश्यक है। हर किसी पर इस अस्त्र का उपयोग नहीं किया जा सकता। इसे किसी के पक्ष में प्रयुक्त करना है तो किसी के विरुद्ध। यह विवेक व्यंग्य के मूल में विद्यमान विचार से प्राप्त होता है। व्यंग्य विचार से पैदा भी होता है और विचार को पैदा भी करता है। इस वैचारिकता से दिशा प्राप्त कर मानवता के हित में व्यंग्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष सुनिश्चित करना आज व्यंग्यकारों का सबसे बड़ा कर्तव्य भी है और उनके समक्ष गम्भीर चुनौती भी—यही इस शोध का निष्कर्ष है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2004 |
Edition Year | 2022, Ed. 3rd |
Pages | 383p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 3 |