Gahri Nadiya Naav Purani

Author: Ushakiran Khan
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Gahri Nadiya Naav Purani
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पुनकला को नहीं मालूम कि उसने अपने बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित कर, और लीला को अपने यहाँ शरण देकर कितना बड़ा काम किया। उसका सारा जीवन एक मैनेजर की तरह बीत गया। उसने कर्त्तव्य को टाला नहीं, और प्रेम को भी मन भरकर जिया, लेकिन बस मन में ही भरकर, जो उसे मिला वह ऐसा नहीं था जो सिर्फ उसका हो।

वह दरअसल समय था, अपनी गति से खिलता-बढ़ता समय जिसमें सब शामिल थे : समाज बदलने के अपने बड़े सपने को पूरा करने के लिए उसे छोड़कर गया उसका पति सुधीर हजारी; छीतन हजारी जिसने उसके बाद उसे अपने घर की मालकिन बनाया और अपने बच्चों की माँ; उसके बच्चे जिन्होंने उसे अपनी माँ ही माना; लीला, जिसने उसके आँचल तले ठौर पाया;  और वह काल जिस की विराट गोद में बच्चे पल रहे थे, बड़े हो रहे थे, फिर उनके बच्चे; धरती जो धीरे-धीरे थिर हो रही थी, बंजर से उपजाऊ;  शिक्षा जो सदियों से पीड़ित-प्रताड़ित जनगण को आगे बढ़ने का रास्ता दे रही थी। यह सब दादी पुनकला का था।

बिहार के देश-काल में अवस्थित इस उपन्यास का जेपी आन्दोलन और आपातकाल का दौर है; लेकिन कथा यह बिहार के पिछड़े दलित समाज की और उसके तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक ढांचे की है। वहाँ बाढ़ है, गरीबी है, गुंडई है, लेकिन सपने भी हैं, बदलाव की आकांक्षा भी है, वे युवा भी हैं जिनमें शिक्षा की, आगे बढ़ने की, और बदलाव की गहरी तलब है, जो अपने सपनों को अपनी ही धरती में बोना चाहते हैं।

दादी पुनकला ने बहुत धीमे समय को भी देखा है, और अब इस वक्त को भी देख रही है। उनके पास सब कुछ है, लेकिन सुधीर हजारी नहीं।  और सुधीर हजारी जो पहले नक्सल होते हैं, फिर जेपी के साथ जुड़ते हैं, और आपातकाल के बाद अपने गाँव आकर अपने लोगों को दिशा देते हैं; उनके पास भी सभी कुछ है, लेकिन पुनकला नहीं, जो आठ-नौ साल की उम्र में उनकी पत्नी बनी थी, और जवानी में कदम रखते ही जिसे उन्होंने­­­­ मुक्त कर दिया था। दोनों के बीच बदलाव का एक बड़ा हलचल-भरा फलक है लेकिन वे दोनों आज भी वहीं खड़े हैं जहाँ अलग हुए थे।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2022
Edition Year 2022, Ed. 1st
Pages 144p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 1.5
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Ushakiran Khan

Author: Ushakiran Khan

उषाकिरण खान

उषाकिरण खान हिन्दी और मैथिली की वरिष्ठ साहित्यकार हैं। उनका जन्म 24 अक्टूबर, 1945 को बिहार के लहेरियासराय (दरभंगा) में हुआ। पटना विश्वविद्यालय से इतिहास एवं पुरातत्त्व में स्नातकोत्तर तथा मगध विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. करने के बाद लम्बे समय तक अध्यापन किया।

लेखन की शुरुआत 1977 से। ‘विवश विक्रमादित्य’, ‘दूबधान’, ‘गीली पाँक’, ‘कासवन’, ‘जलधार’, ‘जनम अवधि’, ‘घर से घर तक’, ‘खेलत गेंद गिरे यमुना में’, ‘मौसम का दर्द’ (कहानी संग्रह); ‘अगनहिंडोला’, ‘सिरजनहार’, ‘गई झूलनी टूट’, ‘फागुन के बाद’, ‘पानी की लकीर’, ‘सीमान्त कथा’, ‘रतनारे नयन’, ‘गहरी नदिया नाव पुरानी’ (उपन्यास); ‘कहाँ गए मेरे उगना’, ‘हीरा डोम’ (नाटक);  ‘प्रभावती : एक निष्कम्प दीप’, ‘मैं एक बलुआ प्रस्तर खंड’ (कथेतर गद्य); ‘सिय पिय कथा’ (खंडकाव्य) उनकी प्रमुख हिन्दी कृतियाँ हैं। मैथिली में प्रकाशित प्रमुख पुस्तकें हैं : ‘काँचहि बाँस’, ‘गोनू झा क्लब’, ‘सदति यात्रा’ (कहानी संग्रह); ‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘दूर्वाक्षत’, ‘हसीना मंजिल’, ‘भामती : एक अविस्मरणीय प्रेमकथा’, ‘पोखरि रजोखरि’, ‘मनमोहना रे’ (उपन्यास); ‘चानो दाई’, ‘भुसकौल बला’, ‘फागुन’, ‘एक्सरि ठाढ़ि’ (नाटक)।

दोनों भाषाओं में बच्चों के लिए भी उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। विभिन्न रचनाओं के उड़िया, बांग्ला, उर्दू एवं अंग्रेजी समेत अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं।

‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ (2010), ‘भारत भारती’ (2019) और ‘प्रबोध साहित्य सम्मान’ (2020) सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार-सम्मान उन्हें प्रदान किए जा चुके हैं। वर्ष 2015 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से विभूषित किया गया।
निधन : 12 फरवरी, 2024

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