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Dharamsatta Aur Pratirodh Ki Sanskriti

Author: Rajaram Bhadu
Edition: 2003, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Dharamsatta Aur Pratirodh Ki Sanskriti

कभी धर्म राजनीतिक सत्ता के बावजूद पूर्ण स्वायत्त था। मध्यकालीन भारत में धर्म अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए सैन्य-संघर्ष तक पर उतारू हो जाता था। मौजूदा दौर में राजनीति धर्म की पारम्परिक सत्ता पर क़ब्ज़ा कर उसे अपनी सफलता की सीढ़ी बनाना चाहती है। पिछले दो दशकों से धर्म इसीलिए बौद्धिक विमर्श के केन्द्र में रहा है। अतः धर्म-सत्ता में आई विकृति के अध्ययन में अन्य अनुशासनों के विचारकों के तत्पर होने की आवश्यकता बनती है कि धार्मिक टकराव के कारण क्या हैं? क्या इसका कारण धर्म के बाहर है या धर्म के भीतर?

बहुदेववादी हिन्दू धर्म की सत्ता कभी केन्द्रीकृत नहीं रही, जबकि एकेश्वरवादी इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी, पारसी धार्मिक सत्ता केन्द्रीकृत रही। इस अन्तर के बावजूद सबमें उभयबिन्दु यह है कि सभी धर्म महत् तत्त्व, सुप्रीम बीइंग, में आस्था रखते हैं। धर्म ने स्वयं को दर्शन और सामाजिक कर्तव्यशास्त्र से जोड़ा, इसलिए उसका असर मनुष्य के समस्त ज्ञान-विज्ञान, साहित्य और कलाओं में दिखता है। अपने यहाँ धर्मनिरपेक्षता पर अधिक अध्ययन हुए, धर्म उपेक्षित रह गया। धर्मनिरपेक्षता के प्रवर्तक होली ओक ने 1860 में कहा था, “धर्मनिरपेक्षतावाद न तो धर्मशास्त्र की उपेक्षा करता है, न उसकी स्तुति करता है और न उसे अस्वीकार करता है।” इसीलिए लेखक ने धर्म-निषेध वाले नज़रिए के बजाय धर्म की स्वीकार्यता को प्रस्थान-बिन्दु बनाया है।

प्रकृतिदेव से शुरू हुई अवधारणा ईश्वर के रूप में विकसित हुई। बीसवीं सदी में ईश्वर की अवधारणा क्या है? कहाँ तक विकसित हुई? हिन्दू धर्म के संजाल में पीठ, आश्रम, मठ, धामों के बाद हिन्दू अध्यात्म के नए केन्द्र और नए पैग़म्बर कौन-कौन से हैं? नई धर्म-सत्ता का बाज़ार से क्या रिश्ता है? हिन्दू धर्म सिकुड़ या फैल रहा है? बहुदेववादी हिन्दू धर्म अनुदारता, धार्मिक कट्टरता और बर्बरता की राह पर कैसे चलने लगा? आज हिन्दू धर्म के सम्बन्ध इस्लाम, बौद्ध, जैन और ईसाइयत से तनावपूर्ण हैं। यह तनाव हमारे वृहत्तर समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देगा। ऐसे में हिन्दू धर्म के लिए आत्म-परीक्षण का ही मार्ग बचता है। हिन्दू धर्म, उसके सम्प्रदायों, धर्मों के पारस्परिक सम्बन्ध, अद्यतन धार्मिक विकास के विस्तृत विवरणों और विश्लेषण से सजी यह पुस्तक प्रखर आलोचक और समाज-अध्येता राजाराम भादू का गम्भीर प्रयास है। पाठक आस्थावादी हों या अनास्थावादी, यह दोनों के लिए ज़रूरी किताब है। 

—अरुण प्रकाश।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 2003
Edition Year 2003, Ed. 1st
Pages 280p
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2
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Rajaram Bhadu

Author: Rajaram Bhadu

राजाराम भादू

24 दिसम्बर, 1959 को राजस्थान के भरतपुर ज़िले में लुधावई ग्राम के कृषक परिवार में जन्म।

प्रारम्भिक शिक्षा गाँव और भरतपुर शहर में, तदुपरान्त राजस्थान विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. और आगरा विश्वविद्यालय के क.मु. हिन्दी एवं भाषाविज्ञान संस्थान से लोक-संस्कृति एवं भाषाविज्ञान में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।

छात्र-जीवन से ही कृषक व श्रमिक आन्दोलनों में हिस्सेदारी। लम्बे समय तक जन-प्रतिरोध और सांस्कृतिक आन्दोलनों के साथ जुड़कर प्रतिबद्ध पत्रकारिता। ‘समकालीन जनसंघर्ष’ मासिक का सम्पादन। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन। हिन्दी के अनूठे सांस्कृतिक और साहित्यिक पाक्षिक ‘दिशाबोध’ के सम्पादक। ‘महानगर’ दैनिक मुम्बई में सह-सम्पादक।

शिक्षा और सामाजिक अनुसन्धान के क्षेत्र में कार्य। विकास अध्ययन संस्थान, बोध और दिगन्तर शिक्षा संस्थाओं के लिए शोध एवं प्रलेखन। शैक्षिक नवाचार और विकास की वैकल्पिक अवधारणाओं पर अध्ययन। विभिन्न जन-आन्दोलनों और जन-अधिकार संगठनों एवं सांस्कृतिक संस्थाओं से सम्बद्ध। साहित्य के अलावा सांस्कृतिक अध्ययनों में रुचि। ‘कविता के सन्दर्भ’ (आलोचना); ‘स्वयं के विरुद्ध’ (गद्य-कविता) और ‘सृजन-प्रसंग’ (निबन्ध) आदि कृतियाँ प्रकाशित।

फ़िलहाल राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की मासिक पत्रिका ‘समय माजरा’ के सम्पादक-मंडल में और मासिक पत्रिका ‘शिक्षा-विमर्श’ का सम्पादन।

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