Chaya Ke Pyale Mein Gend

बकौल विजयमोहन सिंह: ‘‘कहानियाँ लिखना दिनोंदिन दुष्कर होता जा रहा है। इसका एक कारण तो शायद यह है कि मनुष्य की प्रकृति क्रमशः ऐन्द्रिकता तथा संवेदनात्मकता से बौद्धिकता की ओर जाने वाली है। इस परिवर्तन में अनुभव और उम्र की भी बड़ी भूमिका प्रमुख होती है। हमारी संवेदनाएँ उम्र के साथ उतनी सरस तथा ऐन्द्रिक नहीं रह पातीं। कथा-साहित्य कविता जितना भाव-केन्द्रित नहीं होता, लेकिन शुष्क विमर्श और बौद्धिक विश्लेषण पर भी आधारित नहीं होता। ऐसा होने पर उसका कथा-तत्त्व ही नहीं, पठनीयता भी क्षीण होती जाती है। कथा की पठनीयता विचार-साहित्य से पृथक् एक अलग धरातल पर निर्धारित होती है। यह अलग बात है कि अक्सर बड़ा कथा-साहित्य अनुभूति और विचार के एक विरल सन्तुलन पर आधारित होता है, किन्तु जिसे परिपक्वता कहते हैं, वह अनुभूति की तीव्रता की कीमत पर ही प्राप्त होती है।’’ यही कारण है कि इस संग्रह में वे ही कहानियाँ शामिल की गई हैं जिनमें अनुभूति की ताजगी बरकरार है, और जो पाठक की रुचि को बाँधे रख सकें। विजयमोहन सिंह कहानी के लिए सामाजिक- राजनीतिक रूप से प्रासंगिक होना अनिवार्य नहीं मानते, लेकिन वह केवल बुद्धि या कल्पना का विलास होकर रह जाए, इससे भी वे सहमत नहीं हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ अपने समय और समाज के धरातल पर खड़ी होकर कथा-रस का निर्वाह भी करती हैं, और इस तरह एक स्वस्थ और समग्र पठनीयता का आधार पाठक को देती हैं।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back |
Publication Year | 2012 |
Edition Year | 2021, Ed 2nd |
Pages | 120p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1 |
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