राधू करमाकर दरअसल राजकपूर के सबसे विश्वस्त सिनेमैटोग्राफ़र थे। ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ जैसी उत्कृष्ट फ़िल्मों की उनकी ख़ूबसूरत फ़ोटोग्राफ़ी को आज भी दर्शक उत्सुकता और रोमांच से देखते और सराहते हैं। राधू करमाकर की गणना उस दौर के विश्व के दस महान सिनेमैटोग्राफ़रों में की जाती थी। सोवियत रूस में इनकी कुछ फ़िल्मों को सिनेमैटोग्राफ़ी के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था जिनका फ़्रेम-दर-फ़्रेम विश्लेषण करके सिनेमैटोग्राफ़ी के विद्यार्थी फ़ोटोग्राफ़ी के गुर सीखते थे। यह पुस्तक उसी महान सिनेमैटोग्राफ़र की आत्मकथा है। इसमें मामूली कृषक परिवार से निकलकर भारतीय सिनेमा के सिनेमैटोग्राफ़ी के क्षेत्र में उनके शिखर पर पहुँचने की रोचक यात्रा दर्ज है।
राधू करमाकर के बयान में विलक्षण शालीनता है जो बॉलीवुड की दिखावे और बड़बोली दुनिया से अलग है। इनकी यह शालीनता केवल शब्द-व्यवहार नहीं है, यह उनके निजी व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा है। इस आत्मकथा में न तो कोई तेवर है और न ही कोई नाटकीय पैंतरे।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Hard Back |
Publication Year | 2010 |
Edition Year | 2019, Ed. 2nd |
Pages | 164p |
Translator | Vinod Das |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1 |