Bhootlen Ki Katha

Autobiography
Editor: Brij Vishal Lal
You Save 20%
Out of stock
Only %1 left
SKU
Bhootlen Ki Katha

'गिरमिटियों' के 'गिरमिट' के अनुभवों के बारे में अधिकांशतः इतिहासकारों अथवा प्रवासियों के उत्तराधिकारियों द्वारा ही लिखा गया है। हम यहाँ एक ऐसे 'गिरमिटिया' के बारे में जानने जा रहे हैं जिसने अपने अनुभवों को एक लेखक के माध्यम से कलमबद्ध कराया है। वह असाधारण गिरमिटिया थे तोताराम सनाढ्य। गिरमिट प्रथा को बंद कराने में तोताराम के वृत्तांतों का ही राष्ट्रवादियों ने सहारा लिया।

सन् 1914 में फीजी से भारत लौटने के तत्काल बाद ही तोताराम सनाढ्य ने फीजी में बिताये अपने 21 वर्ष के जीवन और गिरमिट प्रथा के अनुभवों को प्रकाशित कराया।

तोताराम के सारे बयान बनारसीदास चतुर्वेदी ने फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष में न लिखकर वे ही भाग प्रकाशित करवाए जो उस वक्त चल रहे कुलीप्रथा अभियान के लिए उचित थे। तोताराम के वे संस्मरण अप्रकाशित ही रहने दिये जो फीजी गये भारतीयों तथा फीजीवासियों की सामाजिक और धार्मिक-सांस्कृतिक स्थिति के बारे में थे। यह पांडुलिपि सुरक्षित रखी रही। प्रस्तुत पुस्तक में तोताराम अपनी स्मृति से बनारसीदास चतुर्वेदी को फीजी के अपने संस्मरण सुना रहे हैं और लिप्यंतर कराते जा रहे हैं। चतुर्वेदी जी ने लेखक के संस्मरण के मूल रूप की चीड़फाड़ न करके उन्हें ज्यों-का-त्यों लिखा है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2012
Edition Year 2022, Ed. 2nd
Pages 144p
Translator Not Selected
Editor Brij Vishal Lal
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 1.5
Write Your Own Review
You're reviewing:Bhootlen Ki Katha
Your Rating

Editorial Review

It is a long established fact that a reader will be distracted by the readable content of a page when looking at its layout. The point of using Lorem Ipsum is that it has a more-or-less normal distribution of letters, as opposed to using 'Content here

Author: Totaram Sanadhya

तोताराम सनाढ्य

तोताराम सनाढ्य का जन्म 1876 उत्तर प्रदेश के फ़िरोज़ाबाद ज़िले में हुआ था। 1893 में उन्हें गिरमिटिया मज़दूर बनकर फिजी जाना पड़ा। वहाँ 5 वर्ष तक उन्होंने बँधुआ मज़दूर के रूप में कार्य किया। करार की अवधि समाप्त होने के बाद वे बँधुआ मज़दूरों की सहायता में लग गए। उनके अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष करते रहे। फिजी में 21 वर्ष रहने के बाद 1914 में वे भारत लौट आए। भारत आकर उन्होंने ‘फिजीद्वीप में मेरे इक्कीस वर्ष’ नाम से एक पुस्तक लिखी।

1947 में साबरमती आश्रम में उनका निधन हुआ।

Read More
Books by this Author

Back to Top