मुकुन्द लाठ हमारे मूर्धन्य विचारकों और संगीतवेत्ताओं में से एक हैं। सुखद संयोग यह है कि उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं और वे अपने ढंग के अकेले कवि हैं। विस्मय की बात यह है कि उनकी कविता में संसार की पदार्थमयता और उनकी सहज वैचारिकता में न तो कोई अलगाव है और न ही एक का दूसरे पर कोई बोझ। वे अपने आसपास को जिस सजग संवेदनशीलता और नन्हीं सचाइयों में देख पाते हैं, वह अनोखा गुण है। उनके अवलोकन में सूक्ष्मता है, उनकी अभिव्यक्ति में सफ़ाई है। वे मर्म के कवि हैं, किसी विचार के प्रवक्ता नहीं। उनकी कविता का वितान बड़ा है पर उनमें सहज विनय है, कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं। वे सहज भाव से कह पाते हैं : ‘उडऩा तो/चिडिय़ा से सीख लिया/अब तो आकाश कहाँ पूछता हूँ।’ उनके अलावा हिन्दी में और कवि हैं जो कह सके ‘है इन्हीं पत्तों में कहीं/ढूँढ़ना मत/पंख हूँ, आकाश है।’ रज़ा पुस्तक माला में अपनी आयु के आठवें दशक में लिखी गईं एक कवि की इन कविताओं को हम सादर-सहर्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।
—अशोक वाजपेयी
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2018 |
Edition Year | 2018, Ed. 1st |
Pages | 219p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 2 |