‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ मामूली नाचने-गानेवाली दो बहनों की कहानी है, जो बार-बार मर्दों के छलावों का शिकार होती हैं। फिर भी यह उपन्यास जागीरदार घरानों के आर्थिक ही नहीं, भावात्मक खोखलेपन को भी जिस तरह उभारकर सामने लाता है, उसकी मिसाल उर्दू साहित्य में मिलना कठिन है। एक जागीरदार घराने के आग़ा फ़रहाद बकौल खुद पच्चीस साल के बाद भी रश्के-क़मर को भूल नहीं पाते और हालात का सितम यह कि उसके लिए बन्दोबस्त करते हैं तो कुछेक ग़ज़लों का ताकि ‘अगर तुम वापस आओ और मुशायरों में मदऊ (आमंत्रित) किया जाए तो ये ग़ज़लें तुम्हारे काम आएँगी।’ आख़िर सबकुछ लुटने के बाद रश्के-कमर के पास बचता है तो बस यही कि ‘कुर्तों की तुरपाई फ़ी कुर्ता दस पैसे...’
खोखलापन और दिखावा—जागीरदार तबके की इस त्रासदी को सामने लाने का काम ‘दिलरुबा’ उपन्यास भी करता है। मगर विरोधाभास यह है कि समाज बदल रहा है और यह तबका भी इस बदलाव से अछूता नहीं रह सकता। यहाँ लेखिका ने प्रतीक इस्तेमाल किया है फ़िल्म उद्योग का, जिसके बारे में इस तबके की नौजवान पीढ़ी भी उस विरोध-भावना से मुक्त है जो उनके बुज़ुर्गों में पाई जाती थी।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1995 |
Edition Year | 2019, Ed. 7th |
Pages | 134p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 18 X 12 X 1 |