Santal Hool Santal-Vidroh : 1854-55

Author: Dr. S.P. Sinha
Editor: Ranendra
Edition: 2024, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Santal Hool Santal-Vidroh : 1854-55
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सन्ताल हूल झारखंड में हुए महान उपनिवेश-विरोधी विद्रोह के वास्तविक स्वरूप और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उसके समुचित स्थान को रेखांकित करनेवाली पुस्तक है। भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आदिवासी प्रतिरोध का लम्बा सिलसिला रहा है। छोटानागपुर और सन्ताल परगना के आदिवासियों ने पहाड़ियों और घने जंगलों के अपने गढ़ में अंग्रेजों को कभी भी चैन से नहीं रहने दिया। वे ईस्ट इंडिया कम्पनी की शोषणकारी नीति और भेदभावपूर्ण व्यवस्था से असन्तुष्ट थे। उन्हें उसकी अधीनता स्वीकार नहीं थी। वे अपना राज चाहते थे, इसलिए उन्होंने बार-बार विद्रोह किया। उन्हीं विद्रोहों में से एक था सन्ताल हूल, जो 1857 के बहुचर्चित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ठीक पहले 1854-55 में हुआ था। इस विद्रोह के नेता थे सिदो, कानू, चाँद और भैरव। सन्ताल हूल का–जैसा कि अन्य आदिवासी विद्रोहों में भी दिखता है—उपनिवेशवाद विरोधी तेवर और स्वाधीनता का उद्देश्य स्पष्ट था। उसके नेताओं और भागीदारों की शहादत भी असंदिग्ध थी। बावजूद इसके उसके बारे में भ्रम बना रहा और बौद्धिक-अकादमिक जगत में ‘इतिहास को नीचे से देखने’ का विचार पनपने के वर्षों बीत जाने के बाद तक सन्ताल हूल को भारतीय इतिहास की मुख्यधारा में समुचित स्थान नहीं दिया गया।

इसी स्थिति के मद्देनजर आदिवासी इतिहास और संस्कृति के अधिकारी विद्वान डॉ. एस.पी. सिन्हा ने इस पुस्तक में सन्ताल हूल के बारे में उपलब्ध तमाम दस्तावेजों, परम्परागत और मौखिक स्रोतों को आधार बनाकर सन्तालों की अपनी व्यवस्था, अंग्रेजी व्यवस्था से उनके असन्तोष, हूल के नेताओं के व्यक्तित्व और नेतृत्व-क्षमता, हूल के उद्देश्य और आदर्श आदि के वास्तविक स्वरूप को सामने रखा है। यह पुस्तक एक ओर सन्ताल हूल सम्बन्धी पहले के अध्ययनों की समीक्षा करती है तो भावी अध्ययनों के लिए एक प्रासंगिक दिशा निर्देश भी प्रस्तावित करती है। सिदो, कानू, चाँद और भैरव जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आरम्भिक सूत्रधारों को उनका श्रेय प्रदान करते हुए यह पुस्तक इतिहास के अधूरे परिप्रेक्ष्य को पूरा करती है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 2024
Edition Year 2024, Ed. 1st
Pages 88p
Translator Not Selected
Editor Ranendra
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1
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Author: Dr. S.P. Sinha

डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद सिन्हा

डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद सिन्हा का जन्म 1933 में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय, पटना से उच्च शिक्षा हासिल की और ‘छोटानागपुर और सन्ताल परगना के जनजातीय समाज में संघर्ष और तनाव (1858-1890) : सामाजिक परिप्रेक्ष्य में एक स्थिति’ विषय पर राँची विश्वविद्यालय, राँची से 1978 में डी.लिट. की डिग्री ली। अपने पेशेवर जीवन के आरंभिक दौर में उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन किया; फिर सेंटर ऑफ़ एडवांस स्टडीज़, राँची के मानवविज्ञान विभाग में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे। बाद में उन्होंने शोधकर्ता से लेकर उप-निदेशक तक के रूप में बिहार जनजातीय कल्याण अनुसन्धान संस्थान, राँची में अपनी सेवाएँ दीं। वहाँ  लगभग तीन दशक तक रहे। वे बिहार के प्रशिक्षण और अनुसंधान सम्बन्धी शीर्ष संस्थान, बिहार ग्रामीण विकास संस्थान, हेहल (राँची) में व्यवहार विज्ञान के प्रोफ़ेसर-सह-संयुक्त निदेशक भी रहे। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें प्रमुख हैं—‘लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ बिरसा भगवान’, ‘द प्रॉब्लम ऑफ़ लैंड ऐलिअनेशन ऑफ़ द ट्राइबल्स इन एंड अराउंड राँची’, ‘सन्ताल हूल’, ‘पेपर्स  रिलेटिंग टू सन्ताल इन्सरेक्शन’, ‘पेजेंट मूवमेंट इन छोटानागपुर’, ‘मुंडा लैंड सिस्टम’, ‘द कनफ़्लिक्ट एंड टेंशन इन ट्राइबल सोसाइटी’ और ‘ट्राइबल गुजरात : सम इम्प्रेशन’। ‘इम्पैक्ट ऑफ़ इंडस्ट्रियलाइजेशन’, ‘ट्राइबल्स एंड फ़ॉरेस्ट’, ‘एडमिनिस्ट्रेटिंग द प्री हिस्टोरिक्स’ और ‘एडुकेटिंग द प्रिलिटरेट’ उनकी सम्पादित कृतियाँ हैं। इनके अलावा आदिवासियों और उनके आन्दोलनों से सम्बन्धित उनके कई शोधपत्र और रिपोर्ट प्रकाशित हुए। उन्होंने बिहार ग्रामीण विकास संस्थान के जर्नल ‘विहंगम’ और बिहार जनजातीय कल्याण अनुसन्धान संस्थान की बुलेटिन का सम्पादन भी किया। 

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