‘रामनगरी’ मराठी के सुपरिचित लेखक और लोकनाट्यकर्मी राम नगरकर का आत्मकथात्मक उपन्यास है। उपन्यास इन अर्थों में कि इसकी शैली उपन्यासधर्मी है और ‘आत्मकथात्मक’ इन अर्थों में कि इसके स्थान–काल–पात्र, सब वास्तविक हैं और ‘मैं’ अर्थात् ‘रामचन्द्र्या’ (बकौल बाप के ‘भड़वे’!) अर्थात् लेखक राम नगरकर के आसपास घूमते हैं। चूँकि इस उपन्यास के लेखक जाति से नाई हैं, और चूँकि यह ‘आत्मकथात्मक’ रचना है, इसलिए इसके पहले पृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक एक ऐसे ‘हज्जाम’ की उपस्थिति पंक्ति–दर–पंक्ति महसूस होती रहती है, जो एक ओर तो सवर्ण समाज द्वारा पग–पग पर अपमानित–प्रताड़ित होता रहता है, और दूसरी ओर अपनी ‘कूढ़मग़ज़ी’ में क़ैद रहने को भी विवश है। लेकिन इस विरोधाभास के प्रति ‘रामनगरी’ के लेखक का रुख़ आत्मदया–प्रधान नहीं, बल्कि व्यंग्य–प्रधान है, और व्यंग्य भी इतना तीखा कि तेज़ चाकू की तरह चीरता चला जाए। बेबाकी इस हद तक कि जहाँ सारी हदें टूट जाएँ; मतलब, जहाँ मौक़ा मिला, ख़ुद को भी गिरफ़्त में लेने से बाज़ नहीं आए। इसके बावजूद, चूँकि इसके लेखक की मुख्य हिस्सेदारी लोक–नाटकों के क्षेत्र में रही है, इसलिए लोकरंजन की बात वे एक क्षण के लिए भी नहीं भूलते यानी चुटकी तो तिलमिला देनेवाली काटते हैं, लेकिन ‘उफ़’ नहीं करने देते और माहौल में ठहाके–ही–ठहाके गूँजते रहते हैं।

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Language Hindi
Format Paper Back
Publication Year 2001
Edition Year 2001, Ed. 1st
Pages 247p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 18 X 12 X 1
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Author: Ram Nagarkar

राम नगरकर

राम नगरकर, नीलू फुले और दादा कोंडके। तीनों की मित्रमंडली। हँसाना इस मंडली का धन्धा। जनता में ‘नक्काल’ नाम से विख्यात। नाम-भर लेने से जनता ख़ुश। तमाशा (लोकनाट्य) से थिएटर और सिनेमा में गए। राम तीनों में सबसे छोटे, फिर भी उन्होंने यह चमत्कार कर दिखाया। अपने जीवन के अनुभवों पर यह पुस्तक लिखी। नाई जाति में जन्म लेनेवाले राम नगरकर इस पुस्तक में गहरे विनोद के साथ हमारे जाति-भेदी समाज का ख़ाका खींचते हैं।

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