Qissa-Qissa Lucknowaa

Author: Himanshu Bajpai
Edition: 2019, 1st Ed.
Language: Hindi
Publisher: Sarthak (An imprint of Rajkamal Prakashan)
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Qissa-Qissa Lucknowaa
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क़िस्सागोई उर्दू ज़बान का कदीमी फ़न है, जिसे वक्‍़त के साथ भुला दिया गया था, लेकिन इधर कुछ लोगों की कोशिशों के चलते यह कला वापस मुख्यधारा में आ रही है। हिमांशु बाजपेयी इन्हीं जियालों में एक हैं। इस किताब में उनके लखनऊ से मुतल्लिक क़िस्से हैं जिन्हें उन्होंने लोगों से, बड़े-बूढ़ों से, किताबों से, और कुछ ख़ुद के अपने तजुर्बों से हासिल करके क़लमबंद किया है। कुछ क़िस्से हो सकता है, पहले आपने सुने हों, लेकिन यहाँ हिमांशु ने उन्हें जिस तरह पेश किया है, वह उन्हें उनके क़िस्से बना देता है। एक बात और, लखनऊ के बारे में क़िस्सों की बात आती है तो ध्यान सीधे नवाबों के क़िस्सों की तरफ़ चला जाता है, लेकिन ये क़िस्से आमजन के हैं। लखनऊ की गलियों-मुहल्लों में रहने-सहनेवाले आम लोगों के क़िस्से। इनमें उनके दु:ख-दर्द भी हैं, उनकी शरारतें भी हैं, उनकी हिकमतें और हिमाकतें भी हैं, गरज़ कि वह सब है जो हर आम शख़्स इतिहास द्वारा गढ़े किसी भी नवाब या बादशाह से बड़ी और ज़्यादा काबिले-यक़ीन शय बनता है। बकौल हिमांशु वाजपेयी ‘‘ये क़िस्से लखनऊ की मशहूर तहज़ीब के ‘जनपक्ष’ को उभारते हैं...ज़्यादातर क़िस्से सच्चे हैं। कुछ एक सच्चे नहीं भी हैं...।’’ लेकिन इंसान के रुतबे को बतौर इंसान देखने की उनकी मंशा एकदम सच्ची है। लखनऊ के नवाबों के क़िस्से तमाम प्रचलित हैं, लेकिन अवाम के क़िस्से किताबों में बहुत कम मिलते हैं, जो उपलब्ध हैं, वह भी बिखरे हुए। यह किताब पहली बार उन तमाम बिखरे क़िस्सों को एक जगह बेहद ख़ूबसूरत भाषा में सामने ला रही है, जैसे एक सधा हुआ दास्तानगो सामने बैठा दास्तान सुना रहा हो।
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Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 2019
Edition Year 2019, 1st Ed.
Pages 184p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Sarthak (An imprint of Rajkamal Prakashan)
Dimensions 22 X 14 X 2
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Himanshu Bajpai

Author: Himanshu Bajpai

हिमांशु बाजपेयी

हिमांशु बाजपेयी पक्के लखनउवा हैं। वो ख़ुद को उसी चौक यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट कहते हैं, अमृतलाल नागर ख़ुद को जिसका वाइस-चांसलर कहते थे। चौक की गलियों में चहलक़दमी उनका पसन्दीदा काम है। इन्हीं के बीच 12 जून, 1987 को पैदा हुए और यहीं पले-बढ़े। उनके मुताबिक़ पुराने लखनऊ की गलियों में बेसबब भटकना ऐसे है जैसे आप महबूबा की ज़ुल्फ़ के ख़म निकाल रहे हों। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से लखनऊ के ऐतिहासिक नवल किशोर प्रेस पर पीएच.डी. की है। दास्तानगोई के जाने-पहचाने फ़नकार हैं। लखनऊ के समाज और संस्कृति पर दीवानावार लिखते हैं। बाहरवालों को अपनी नज़र से लखनऊ दिखाने और लखनऊवा क़िस्से सुनाने के लिए मशहूर हैं।

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