“...खेतों की मुँडेरों पर से दीखते बबूल, कीकर, कच्चे घरों से उठता धुआँ, रात के सुनसान में सरपट भागते घोड़े, छवियाँ लशकाते डाकू, घरों से पेटियाँ धकेलते चोर, कनखियों से एक-दूसरे को रिझाते जवान मर्द और औरतें, भोले-भाले बच्चे, लम्बे सफ़र समेटते डाची सवार—समय और स्थितियों से सीनाज़ोरी करते बलवन्त सिंह के पात्र पाठक को देसी दिलचस्पियों से घेरे रहते हैं। कुछ कर गुज़रने के लिए जिस साहस की ज़रूरत इन्हें है, उसे कलात्मक उर्जा से मंज़िल तक पहुँचाने का फ़न लेखक के पास मौजूद है।
बलवन्त सिंह के यहाँ धुँधलके और ऊहापोह की झुरमुरी कहानियाँ नहीं, दिन के उजाले में, रात के एकान्त में स्थितियों को चुनौती देते साधारण जन और उनका असाधारण पुरुषार्थ है। बलवन्त सिंह सिर्फ़ आदमी को ही नहीं रचते, कहानी की शर्त पर उसके खेल और कर्म को भी तरतीब देते हैं। वे शोषण और संघर्ष का नाम नहीं लेते, इसे केन्द्र में लाते हैं।
यही कारण है कि उनके यहाँ नुमाइशी-पात्र नहीं, जीते-जागते हाड़-मांस के साधारण खुरदरे लोग मिलते हैं। वह अपनी कोशिशों की कामयाबी और बड़ी नाकामयाबी को भी जिए जाते हैं किसी अगले मौक़े की उम्मीद में...”
—कृष्णा सोबती (भूमिका से)
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 1997 |
Edition Year | 2014, Ed. 2nd |
Pages | 183p |
Translator | Not Selected |
Editor | Krishna Sobti |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 18 X 12 X 1 |