Phir se Jahanpanah

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Edition: 2024, Ed. 2nd
Language: Hindi
Publisher: Lokbharti Prakashan
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Phir se Jahanpanah
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प्रभाकर श्रोत्रिय का नाटक ‘फिर से जहाँपनाह’ सत्ता के चरित्र का उद्घाटन करता है। “सत्ता भ्रष्ट करती है” इस मूल अवधारणा पर टिका यह नाटक काल के विस्तीर्ण पटल पर रखा गया है। जनता के कल्याण की घोषणाएँ करने वाली कोई भी शासन प्रणाली सत्ता पा जाने या सौंप दिए जाने पर “पहला प्रहार उन्हीं” मूल्यों पर करती है, जिनकी रक्षा के लिए वह वचनबद्ध है। चाहे जिस कालखण्ड में हम जाएँ—यही नज़ारा मिलता है। व्यक्ति बदल जाते हैं—सत्ता का चरित्र नहीं बदलता। आधुनिकता के शीर्ष पर पहुँची सत्ता के कारनामों को देखते हुए यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या अब भी हम मध्यकाल में हैं? क्योंकि वे ही प्रवृत्तियाँ आवरण में या मुखौटे लगाकर हमारे सामने आती हैं जो किसी युग में नग्न रूप में दिखाई पड़ती थीं। ऐसे में लेखक ने यह प्रश्न उठाया है कि (बहुत कुछ भ्रष्ट हो जाने पर भी) प्रजातंत्र का विकल्प तानाशाही नहीं है। जो भी बदलाव लाना है या लाया जा सकता है वह सिर्फ प्रजातंत्र के ढाँचे में ही लाया जा सकता है। इस नाटक की रचना दो भागों में हुई है जिसमें दो कालखंड, दो प्रकार के शासकीय ढाँचे प्रतीक हैं। संचालन करने वाले नाम—रूप की भिन्नता के बावजूद वास्तव में भिन्न नहीं हैं। इसलिए पात्रों की भी दो भूमिकाएँ हैं।

पाठकों और रंग-कर्मियों को यह नाटक भेंट करते हए हम प्रसन्न हैं।

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Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 1997
Edition Year 2024, Ed. 2nd
Pages 95p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1
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