यह पुस्तक भारतीय राजनीति और समाज को पिछले दो दशकों से मथनेवाली साम्प्रदायिकता की परिघटना को समझने और उसके मुक़ाबले की प्रेरणा और सम्यक् समझ विकसित करने के उद्देश्य से लिखी गई है। चार खंडों—वाजपेयी (अटल बिहारी), संघ सम्प्रदाय, जॉर्ज फर्नांडीज, गुराज—में विभक्त इस पुस्तक में साम्प्रदायिकता के चलते पैदा होनेवाली कट्टरता, संकीर्णता और फासीवादी प्रवृत्तियों और उन्हें अंजाम देने में भूमिका निभानेवाले नेताओं, संगठनों, शक्तियों आदि का घटनात्मक ब्यौरों सहित विवेचन किया गया है। इसमें मुख्यतः साम्प्रदायिकता के राष्ट्रीय जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक-अकादमिक आयामों पर पड़नेवाले दुष्प्रभावों/दुष्परिणामों की भी शिनाख़्त और आकलन किया गया है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा भूमंडलीकरण की विचारधारा के साथ मिलकर देश की आर्थिक और राजनैतिक सम्प्रभुता पर गहरी चोट कर रही है। पुस्तक में दोनों के गठजोड़ का उद्घाटन करते हुए, उसके चलते दरपेश नवसाम्राज्यवादी ख़तरे के प्रति आगाह किया गया है।
पुस्तक की विषयवस्तु साम्प्रदायिकता और उससे होनेवाले बिगाड़ को चिन्हित करने तक सीमित नहीं है। इसमें धर्मनिरपेक्षता, उदारता, लोकतंत्र और समाजवाद की विचारधारा के पक्ष में लगातार जिरह की गई है। इस रूप में यह सरोकारधर्मी और हस्तक्षेपकारी लेखन का सशक्त उदाहरण है।
भाषा की स्पष्टता और शैली की रोचकता पुस्तक को सामान्य पाठकों के लिए पठनीय बनाती है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2004 |
Edition Year | 2004, Ed. 1st |
Pages | 248p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |