Jangal Mein Jheel Jagati

Translator: Gagan Gill
Edition: 2024, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Jangal Mein Jheel Jagati
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आधुनिक पंजाबी कविता में अपनी तरह के अकेले कवि हरिभजन सिंह की कविताओें के इस संकलन को उनकी प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन भी कहा जा सकता है। उनके पहले कविता-संग्रह ‘लासां’ (1956) से लेकर ‘मत्था दीवे वाला’ (1982) तक के सात संग्रहों से चुनी गईं ये कविताएँ उनके कवि-व्यक्तित्व को काफ़ी कुछ सामने ले आती हैं। साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत ‘ना धुप्पे ना छाँवे’ शीर्षक संग्रह की कविताएँ भी इस पुस्तक में संकलित हैं।

गहरे अर्थों में सामाजिक और स्वानुभूति के प्रति अत्यन्त सजग उनके कवि-व्यक्तित्व के बारे में इस चयन की सम्पादक गगन गिल ठीक ही कहती हैं कि उनकी अधिकांश कविता आत्मालाप होते हुए भी अकेले आदमी की कविता नहीं, उसमें कोई है, जो सदा उपस्थित है।

हरिभजन सिंह की कविता में व्यक्ति-मन से टकराते सामाजिक आलोड़न की प्रतिध्वनियाँ इतने प्रामाणिक रूप में सुनाई देती हैं कि स्वातंत्र्योत्तर भारत की आधी सदी का मोटा-मोटी एक ख़ाका हमारी चेतना में बन जाता है—ख़ाका उस यातना का जिसे इतिहास नहीं, कविता ही समझ और प्रकट कर सकती है। बांग्लादेश निर्माण के दौरान बहा ख़ून, आपातकाल, पंजाब का उग्रवाद, ऑपरेशन ब्लूस्टार और परमाणु  हथियारों जैसी हर पल मौजूद विपदा को उन्होंने अपनी कविताओं में लगातार सम्बोधित किया है।

वे आवेग के कवि नहीं हैं, उनकी कविता रुककर अपने समय की पड़ताल करती है, और इस तरह उनका सघन और चिन्तनशील मनीषी काव्य-मन एक दीर्घकालीन प्रभाव के रूप में हम तक पहुँचता है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 2024
Edition Year 2024, Ed. 1st
Pages 208p
Translator Gagan Gill
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 2
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Haribhajan Singh

Author: Haribhajan Singh

हरिभजन सिंह

हरिभजन सिंह का जन्म 8 अगस्त, 1920 को असम के लुमडिंग ज़िले में हुआ था। छुटपन में ही माता-पिता चल बसे। स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई लाहौर में हुई। अंग्रेज़ी और हिन्दी में एम.ए. किया। गुरुमुखी में प्राप्त मध्यकालीन हिन्दी काव्य का आलोचनात्मक अध्ययन कर पी-एच.डी. प्राप्त की। 1951 से 1967 तक गुरु तेगबहादुर खालसा कॉलेज, दिल्ली के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक रहे। बाद में आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में पंजाबी के प्रोफ़ेसर रहे। 1984 में सेवानिवृत्त हुए।

उनके प्रमुख कविता-संग्रह हैं—‘लासां’, ‘तार तुपका’ ‘अधरैणी’, ‘न धुप्पे ना छावें’, ‘मैं जो बीत गया’, ‘इक परदेसन प्यारी’, ‘लहराँ नूँ जिन्दरे मारीं’, ‘मेरी काव्य यात्रा’, ‘चौथे दी उडीक’, ‘रूख ते रिशि’, ‘अलविदा तों पहलां’।  निबन्ध, आलोचना आदि विधाओं में भी महत्त्वपूर्ण लेखन। भारतीय एवं विदेशी भाषाओं की कई कृतियों का उन्होंने पंजाबी में अनुवाद किया।

उन्हें ‘साहित्य कला परिषद पुरस्कार’, ‘पंजाब राज्य शिरोमणि पुरस्कार’, ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’, ‘कबीर सम्मान’, ‘वारिस शाह पुरस्कार’ और 1964 के ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत और साहित्य अकादेमी के सर्वोच्च सम्मान ‘महत्तर सदस्यता’ से सम्मानित किया गया।

21 अक्टूबर, 2002 को उनका निधन हुआ।

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