व्याकरण छह वेदांगों में से एक है। वह वेद का मुख है। अत: भारत में उसके अध्ययन की प्राचीनता उतनी ही है जितनी वेदों की। आज से कम से कम अढ़ाई हज़ार वर्ष पूर्व तो पाणिनि ने उसे पूर्णता तक पहुँचा दिया था।
व्याकरण में वर्णों के उच्चारण, शब्दों की रचना और रूप रचना तथा वाक्यों की रूप-रचना पर विचार होता है। वह भाषा का उच्चारण और रूप रचनामूलक अध्ययन करता है। दूसरे शब्दों में, वह शब्द-प्रधान है, अर्थ-प्रधान नहीं। इसीलिए उसे शब्दानुशासन या शब्दशास्त्र भी कहते हैं।
पश्चिम के ग्रामर अर्थ-प्रधान होते हैं। वे वर्णों के केवल लिपिगत रूप पर विचार करते हैं। शब्दों का वर्गीकरण उनके अर्थ के आधार पर करते हैं : अमुक बोधक, तमुक वाचक आदि। वाक्य में रूप-रचना का भी ध्यान रखते हैं पर प्रधानता विश्लेषण की ही होती है जो प्रकार्य (अर्थ) प्रधान होती है—क्रिया, उसका कर्ता, कर्म, पूरक आदि। सार यह कि ग्रामर अर्थ-प्रधान होते हैं, व्याकरण शब्द-प्रधान।
हिन्दी आदि सीखने के लिए विदेशियों ने ग्रामर बनाए, दुर्भाग्य से उन्हें ही व्याकरण कहा जाने लगा। बाद में ब्लूमफील्ड आदि ने भाषा के अध्ययन की व्याकरणिक शैली अपनाई पर उसे ग्रामर नहीं कहा, संरचनात्मक भाषिकी आदि कहा। उनकी भाषिकी व्याकरण है। इसीलिए उन्होंने ग्रामर नहीं कहा
प्रस्तुत रचना में डॉ. दीमशिन्स, कामता प्रसाद गुरु और किशोरीदास वाजपेयी के व्याकरणों की समीक्षा के व्यपदेश से व्याकरण का विषय क्षेत्र तो स्पष्ट किया ही गया है, सच्चे हिन्दी व्याकरण की रूपरेखा भी दी गई है; ऐसे व्याकरण बनेंगे तो भाषा अध्ययन की सही दिशा मिलेगी। जो ग्रामरी शैली को ठीक समझें, वे ग्रामर पढ़ें और लिखें भी, पर उन्हें व्याकरण न कहें? व्याकरण की वही परिभाषा रहने दें जो चार-पाँच हज़ार वर्ष से रही है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1996 |
Edition Year | 2016, Ed. 4th |
Pages | 288p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 2.5 |