नाटक एक श्रव्य-दृश्य काव्य है, अत: इसकी आलोचना के लिए उन व्यक्तियों की खोज ज़रूरी है जो इसके श्रव्यत्व और दृश्यत्व को एक साथ उद्घाटित कर सकें। वस्तु, नेता और रस के पिटे-पिटाए प्रतिमानों से इसका सही और नया मूल्यांकन सम्भव नहीं है और न ही कथा-साहित्य के लिए निर्धारित लोकप्रिय सिद्धान्तों—कथावस्तु, चरित्र, देशकाल, भाषा, उद्देश्य से ही इसका विवेचन सम्भव है।
प्रसाद के नाटकों में कुछ लोगों ने अर्थ-प्रकृतियों, कार्यावस्थाओं और पंच-सन्धियों को खोजकर नाट्यालोचन को विकृत कर रखा था। यह यंत्रगतिक प्रणाली किसी काम की नहीं है। इस पुस्तक में इन समीक्षा-पद्धतियों को अस्वीकार करते हुए पूर्व-पश्चिम की नवीनतम विकसित समीक्षा-सरणियों का आश्रय लिया गया है।
लेखक का केन्द्रीय विवेच्य है नाटक की नाट्यमानता। नाटक की भाषा हरकत की भाषा होती है, क्रियात्मकता की भाषा होती है। इसी से नाटक को विशिष्ट रूप मिलता है और वह सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों को उजागर करती है। इसी से नाटककार की ऐतिहासिक विश्वदृष्टि का भी पता चलता है। हिन्दी के कुछ शिखरों—‘अंधेर नगरी’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘अंधा-युग’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे’ पर विशेष ध्यान दिया गया है जो आज भी महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Publication Year | 1989 |
Edition Year | 2024, Ed. 7th |
Pages | 214p |
Price | ₹295.00 |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 2 |