माँ से पेपर-माशी के बर्तन व खिलौने बनाना सीखा। स्कूली विद्या के साथ-साथ स्थानीय लोक कलाकारों से भित्ति-चित्र लेखन सीखते रहे। बाद में पास के क़स्बे में व्यवसायक चित्रकारों के साथ सहायक के तौर पे अपना गुज़र-बसर करते रहे।
सिख गुरुओं के चित्र बनाना सीखने को गुरु चित्रकार के पास हिमाचल में काँगड़ा वैली में अँधेरा होते हुए धर्मशाला में तिब्बती लामाओं के साथ थंका पेंटिंग सीखते और बौद्ध ध्यान जीवन व्यतीत करके बौद्ध मठ में रहे।
1981 में चंडीगढ़ के कला विद्यालय से चित्रकला में उत्तीर्ण सिद्धार्थ दिल्ली आ बसे। तब से अब तक कई एकल प्रदर्शनियाँ और सैकड़ों राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय कला-उत्सवों और प्रदर्शनियों में भाग लेते वे कला फ़िल्म बनाने से लेकर, मूर्तिकला और कलालोक में अपने को स्थापित करके ग्रेटर नोएडा स्थित कार्यशाला में कई वर्षों से पढ़ने-लिखने में मगन रहते हैं।
उनके चित्रगीत व कथाएँ बाबा नानक की चेतना व शब्द से ओत-प्रोत सुनाई देते हैं।