सर्वेश्वरदयाल सक्सेना कहते हैं कि ‘बतूता का जूता’ की कविताएँ अपने बच्चों के साथ उठते-बैठते उन्हें खुश करने के लिए खेल-खेल में गढ़ी गई हैं। ज्यों-ज्यों उनके बच्चे बड़े होते जा रहे हैं; कविता की उनकी ज़रूरत बदलती जा रही है। इस तरह कविता में तुकों का मज़ा लेने; शब्दों को ज़बान पर लपेटने-खोलने; पंक्तियों को गाने, चिल्लाने, सपाटे से बोले जाने, झटके देने; बात का लुत्फ़ उठाने और खुद उसमें जोड़ने-घटाने का सारा काम उनके बच्चे इन कविताओं के माध्यम से कर चुके हैं। ‘बतूता का जूता’ की बाल-कविताएँ बच्चों के रचनात्मक और बौद्धिक संसार को समृद्ध करती जान पड़ती हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Publication Year | 1971 |
Edition Year | 2010, Ed. 2nd |
Pages | 32p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 20.5 X 15.5 X 0.2 |