‘जंगल’ जब तक ‘जंगलों’ में थे, तब तक जंगल के नियम, उसका बाहुबल, कमज़ोरों पर बाहुबलियों के शोषण जंगलों तक ही सीमित थे। आज जंगलों का फैलाव शहरों-गाँवों तक आ पहुँचा है। जंगलों के साथ शहरों-गाँवों तक में जंगली जानवरों के पैरों के निशान दिखाई देने लगे। आदमी भी इनके संग-साथ में तन की ताक़त एवं मन के, विचार के स्तर पर धीरे-धीरे जानवर होने लगा। सोच-विचार एवं विवेक के स्तर पर जिसने जंगल को परास्त कर दिया, वह आदमी रह गया पर जो स्वयं परास्त होकर जंगल के सामने नतमस्तक हो गया, जिसने अपने भीतर जंगल को बसा लिया, वह जंगली जानवरों से भी ज्‍़यादा भयावह हो गया। उसके पंजे करामात दिखाने लगे। बाहुबल शोषण का स्रोत बन गया, माफ़‍िया-संस्कृति सर उठाकर चलने लगी और शीघ्रातिशीघ्र ‘कुबेर’ बनने की ललक ने बिना पूँजी-पगहा वाला ‘अपहरण-उद्योग’ खड़ा कर दिया। जंगली चक्की चलने लगी, लोग पिसने लगे।

शोषण बढ़ा तो इसकी प्रतिक्रिया पहले कुनमुनाई, फिर अँगड़ाई लेने लगी। पाँवों तले दबी दूब भी पाँव हटने के बाद सर तो उठाती ही है। उठने लगे विरोधी स्वर...धीरे-धीरे उग्र होने लगे ये स्वर। फैलने एवं पकने लगीं उग्रवाद की फ़सलें।

बाहुबल, माफ़‍िया-संस्कृति, अपहरण-उद्योग और उग्रवाद के खाद-पानी के लिए कोयलांचल और उसके चारों ओर दूर-दूर तक फैली जंगल-पहाड़ों वाली ज़मीन बड़ी मुफ़ीद बन गई।

कहते हैं कोयलांचल में नोट हवा में उड़ते हैं। जिसके हाथों में ताक़त हो वह आगे बढ़कर लूट ले। लूट की जंगली प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो बाहुबल का प्रदर्शन बढ़ा। लोग दूसरों की लाशें गिराकर उन्हें रौंदते हुए ‘नोट’ तक बढ़ने लगे। ख़ूनी-खेल गुल्ली-डंडा बन गया, उग्रवाद एवं अपहरण भी साथ-साथ क़दमताल करने लगे, इन सबके बीच पिसने लगा आम आदमी और लाल होने लगी काली ज़मीन।

लाल पड़ती जा रही धरती की परत-दर-परत खोलकर इसे देखने, समझने और दिखाने का प्रयास है यह उपन्यास।

 

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Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2006
Edition Year 2006, Ed. 1st
Pages 207p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2
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Shriram Dube

Author: Shriram Dube

श्रीराम दूबे

जन्म : अगरौली, बलिया (उत्तर प्रदेश)।

शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), विद्यावाचस्पति।

प्रमुख कृतियाँ : ‘अग्निव्‍यूह’ (उपन्‍यास); ‘कहे कबीर’ (लघुकथा-संग्रह); ‘वृषभानुजा’ (राधा पर आधारित महाकाव्य); ‘मौन के स्वर’ (कविता-संग्रह, संपादन); ‘सोनमछरिया सतरंगी’ (गीत-संग्रह); ‘धूप-छाँव’ (ग़ज़ल-संग्रह); ‘कबिरा फँसा बाज़ार में’ (व्यंग्य-संग्रह)। इनके अतिरिक्त दो उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।

सम्मान : ‘वृषभानुजा’ के लिए साहित्यकार संसद, बिहार द्वारा ‘अखिल भारतीय जयशंकर प्रसाद सम्मान’। कारगिल-गीत ‘लाख गोलियाँ खाईं...’ के लिए संस्कार भारती द्वारा भोपाल (मध्य प्रदेश) में राष्ट्रीय गीतकार का सम्मान।

भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश प्राप्त। स्वतंत्र लेखन के साथ विभिन्न समाचारपत्रों में नियमित स्तम्भ लेखन।

 

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