सामन्तशाही के गर्भ से जन्मे पूँजीवाद के बीभत्स चेहरे को सामने लाने का काम भारी जोखिम और चुनौती से भरा हुआ है। पूँजीवाद के ढहते क़िले की कमज़ोर दीवारों से झड़ती रेत को देखना भी कम साहस-भरा काम नहीं है। लेकिन महत्त्वपूर्ण लेखिका दिनेश नन्दिनी डालमिया ने अपने इस उपन्यास में ऐसी तमाम रचनात्मक चुनौतियों को स्वीकार किया है। सड़े-गले समाज में दम तोड़ते विखंडित जीवन-मूल्यों की ही अविस्मरणीय अन्तरकथा है यह उपन्यास।
जिस समाज में सच के पक्ष में खड़े होना एक दुर्लभ दृश्य बन गया हो, जिस समाज में सरेआम सच्चाई पर झूठ और पाखंड का शासन चल रहा हो, जिस समाज में सच जीवित इनसानों के सीनों में दम तोड़ते सपनों में बदल गया हो, यह उपन्यास उसी समाज में जड़ और गतिहीन सम्बन्धों के अन्तर्द्वन्द्व को उजागर करता है।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back |
Publication Year | 1993 |
Edition Year | 1996, Ed. 2nd |
Pages | 376p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 2 |