उन्नीसवीं सदी उनमें से ज़्यादातर मूल्यों की जन्मदाता रही है जो बीसवीं सदी में भारत के जन-गण, राजनीति और सामाजिक गति-प्रगति के आधार-मूल्य रहे। आधुनिकता का विचार इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है जो इसी सदी में भारत आया और जिसने हमें अपनी चारित्रिक बनावट को देखने के लिए एक नई दृष्टि दी। राष्ट्र का विचार और विभिन्न सांस्कृतिक प्रश्नों का उत्तर खोजने की ललक भी इसी सदी में पैदा हुई। परम्परा और आधुनिकता, तर्क और आस्था, विज्ञान और धर्म के तार्किक घात-प्रतिघात का यह समय आनेवाली सदियों में हमारी चिन्तनधारा की पृष्ठभूमि होना था।
यह पुस्तक इस आलोड़नकारी समय में जाति के प्रश्न को टटोलती है। क्या आर्थिक आत्मनिर्भरता, विदेशी शोषकों के विरोध, स्त्री-शिक्षा और सामाजिक उत्थान के अन्य प्रश्नों की चेतना का यह दौर जाति को लेकर भी उतना ही उद्विग्न था? या फिर भारतीय समाज को आज तक अपने चंगुल में दबोचे रखनेवाली 'जाति' देश के जातीय पुनर्जागरण की समग्र धारणा में कहीं पीछे छूट गई थी? छूट गई थी तो क्या वह निष्क्रिय भी थी? क्या वह देश और मनुष्यता के बोध को भीतर-भीतर खा नहीं रही थी? और भारत का अग्रणी बौद्धिक वर्ग उसे लेकर कितना सचेत और विचलित था?
यह सुदीर्घ पुस्तक इन्हीं प्रश्नों का उत्तर तलाशते हुए नवजागरणकालीन हिन्दी साहित्य को लेकर हुए नए शोध-कार्यों की रोशनी में एक सन्तुलित दृष्टि बनाने की कोशिश करती है। भारतेन्दुकालीन साहित्य और पत्रकारिता आदि के परिप्रेक्ष्य में जाति और स्त्री विषयक चिन्तन को लेकर जो एकांगी मान्यताएँ इधर प्रचलन में आई हैं, इसमें उनका भी निवारण करने का प्रयास किया गया है।
इतिहास और साहित्येतिहास की श्रेणी से स्वयं को बाहर रखते हुए भी यह शोध-ग्रंथ इन दोनों विधाओं को जोड़ते हुए आलोचना की एक नई समझ का विस्तार करता है। भाषा की सामाजिक व्याप्ति, सत्ता की भाषा, वर्ण-धर्म-जाति के समीकरण, 1857 के स्वाधीनता संग्राम में जातियाँ और जातीय बोध आदि कई विषयों को व्यापक अध्ययन के आधार पर विश्लेषित करते हुए यह पुस्तक पाठकों, शोध-छात्रों और अध्येताओं को दृष्टि तथा ज्ञान, दोनों स्तरों पर समृद्ध करेगी।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2022 |
Edition Year | 2022, Ed. 1st |
Pages | 456p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 3.5 |