Thakkan Se Nagarjun : Ek Jeevan Yatra

Author: Shobhakant
Edition: 2022, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Thakkan Se Nagarjun : Ek Jeevan Yatra
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साहित्य की लगभग हर विधा में निष्णात माने जाने वाले नागार्जुन को लेकर अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से लिखा है। कोई उनके परम्पराभंजक और प्रगतिशील रूप को अहमियत देता है, कोई उन्हें जनकवि कहता है, कोई नव-जनवादी। उनके प्रकृति-प्रेम पर मुग्ध होने वाले भी मिलेंगे, और उनके गद्य पर जान छिड़कने वाले भी कम नहीं हैं। कुछ हैं जो उनकी घुमक्कड़ी का ही बखान करते नहीं थकते।

नागार्जुन ऐसी शख्सियत थे, जिनसे जुड़ा कोई न कोई किस्सा उनके शुभचिन्तकों-प्रशंसकों-समकालीनों और पाठकों तक के पास मिल जाएगा। इसीलिए यह भी स्वाभाविक है कि कई सच्ची-झूठी कहानियाँ भी उन्हें लेकर साहित्यिक दुनिया में बनीं और फैलीं।

सार्वजनिक जीवन में जिस साहित्यकार की ऐसी बहुरंगी छवि है, उसकी निजी जिन्दगी कैसी रही होगी? साहित्यिक-रचनात्मक कर्म को सर्वोपरि मानने वाले नागार्जुन के रिश्ते अपने परिजनों के साथ किस तरह के रहे? पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में उनको कितना संघर्ष करना पड़ा? किस तरह के उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए वे साहित्य में एक नई लकीर खींच सके? उनकी बहुआयामी सृजनात्मकता की पृष्ठभूमि क्या रही? इन सभी सवालों के जवाब आपको इस किताब में मिलेंगे।

यह बाबा नागार्जुन की जीवनी है। जीवन की हर घटना को समेटने का दावा तो यह पुस्तक नहीं करती, लेकिन इसमें उनके जीवन के उन सभी पहलुओं पर रोशनी जरूर डाली गई है, जिनसे पता चलता है कि एक कर्मकांडी पिता की एकमात्र सन्तान ठक्कन कालान्तर में सबके चहेते ‘बाबा’ किस तरह बने।

यह पुस्तक नागार्जुन को समझने की एक नई खिड़की खोलती है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 2022
Edition Year 2022, Ed. 1st
Pages 504p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 3.5
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Author: Shobhakant

शोभाकान्त

बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गाँव में 14 जून, 1945 को जन्मे शोभाकान्त बाबा नागार्जुन के ज्येष्ठ पुत्र हैं और नागार्जुन की अनथक यात्रा के आखिरी कुछ वर्षों के हमराही भी। ज्ञानेन्द्रपति के शब्दों में कहें, तो 'कवि नागार्जुन उर्फ यात्री के पुत्र ही नहीं मित्र/ अपने बाधित पैरों में अबाध अगाध यात्रोत्साह लिए/दुबले तन में जठर ही नहीं, किसी दावा का भी दाह लिए'। मैथिली और हिन्दी में समान रूप से लिखते रहे हैं। मैथिली और बांग्ला में कुछ अनुवाद भी किया है। दर्जनों निबन्ध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। 1980 के दशक से नागार्जुन की जहाँ-तहाँ बिखरी रचनाओं के संकलन-सम्पादन में लीन। नागार्जुन की 'भूमिजा' और 'पका है यह कटहल' जैसी किताबों के सह-सम्पादक। 'नागार्जुन—मेरे बाबूजी' पुस्तक से खासा चर्चित हुए। 'नागार्जुन : चयनित निबन्ध', 'नागार्जुन रचनावली' और 'यात्री समग्र' का सम्पादन किया है। नागार्जुन के साहित्य-संसार के अनछुए पहलू को सामने लाने के लिए आज भी प्रत्यनशील हैं।

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