ख्यात उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल के उपन्यास ‘शकुंतिका’ पर केन्द्रित आलोचना-पुस्तक उनकी रचनाधर्मिता की सार्थकता को रेखांकित करने का गम्भीर प्रयास है। इसके साथ ही यह इस उपन्यास के बहाने भारतीय समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक मानसिकता और पुरुषवादी वर्चस्व के दुष्परिणामों तथा स्त्री-पुरुष समानता की महत्ता को समझने-समझाने का उपक्रम भी है।
‘शकुंतिका’ में उपन्यासकार ने न केवल बेटियों के प्रति हमारे समाज में मौजूद रूढ़िवादी धारणाओं को दिखलाया है, बल्कि समय के साथ उन धारणाओं में आ रहे सकारात्मक बदलाव को भी रेखांकित किया है। उनकी इस रचना-दृष्टि को यह पुस्तक रूढ़िवादी मान्यताओं के बरअक्स विश्वास की परम्परा के निर्माण के रूप में परिभाषित करती है। यह दिखलाती है कि किसी भी समाज के लिए केवल आदर्श विचारों का होना पर्याप्त नहीं है। उन्हें व्यावहारिक रूप में लागू किए बग़ैर वास्तविक प्रगति नहीं हो सकती। ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ की सूक्ति सँजोने के बावजूद हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति सामाजिक भेदभाव और लैंगिक असमानता के बने रहने का यही कारण है। इस सन्दर्भ में यह पुस्तक सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान के लिए आवश्यक जीवन-मूल्यों के प्रति रचनात्मक आग्रह को भी सप्रमाण रेखांकित करती है।
निस्सन्देह, यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के साथ-साथ सुधी पाठकों के लिए भी एक संग्रहणीय है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2021 |
Edition Year | 2021, Ed. 1st |
Pages | 248p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |