Sampoorna Kavitayein : Kumar Vikal

Author: Kumar Vikal
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Sampoorna Kavitayein : Kumar Vikal
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कुमार विकल राजनीतिक कवि हैं। उनकी कविता पढ़ते हुए पाठकों को स्वाधीनता के बाद की भारतीय राजनीति की कुछ अत्यन्त भयावह वास्तविकताओं और त्रासद स्थितियों की संवेदनशील पहचान मिलती है। उनकी कविताओं में आपातकाल के गहरे आतंक के दिल दहलाने वाले चित्र हैं, नक्सलबाड़ी आन्दोलन के ख़ूँख़्वार दमन की विभीषिका की अभिव्यक्ति है और पंजाब में आतंक के राज से उपजी दहशत की ख़बरें हैं। लेकिन वे राजनीतिक घटनाओं के ब्यौरों पर नहीं, उनके सामाजिक अभिप्राय, जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभाव और मनुष्य के लिए उनके अर्थ के बारे में लिखते हैं।

इन कविताओं से गुज़रते हुए यह भी मालूम होता है कि कुमार विकल को हर तरह के छद्म और पाखंड से चिढ़ है; वह चाहे समाज में हो, साहित्य में हो या रचना की भाषा में। इस छद्म को उघाड़ने की वे बार-बार कोशिश करते हैं। उन्हें कविता की ताक़त पर बहुत भरोसा रहा इसलिए उन्होंने नए अनुभवों, नए अर्थों और नए भाषिक रचाव के लिए संघर्ष करनेवाली कविताएँ लिखीं, लेकिन वे अपने समय और समाज में कविता की सीमाएँ भी जानते थे, इसलिए ‘अपनी कविता से बाहर’ ‘कविता से कोई बड़ा हथियार’ गढ़ने की बात भी करते हैं।

कुमार विकल की कविता एक बेचैन मन की कविता है। यह बेचैनी जितनी राजनीतिक है उतनी ही नैतिक भी है। वे एक ओर भारत में फैलते वनतंत्र में साधारण आदमी को लगातार असुरक्षित देखकर बेचैन होते हैं तो दूसरी ओर सुरक्षा की चाहत के शिकार मनुष्य की मरती हुई मनुष्यता भी उन्हें व्याकुल करती है!

उनकी सम्पूर्ण कविताओं की यह प्रस्तुति निश्चय ही कविता-प्रेमी पाठकों के लिए एक उत्तेजक अनुभव सिद्ध होगी।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2024
Edition Year 2024, Ed. 1st
Pages 240p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 2
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Author: Kumar Vikal

कुमार विकल

कुमार विकल का जन्म सन् 1935 में वजीराबाद, गुजरात (अब पाकिस्तान) में हुआ था। बचपन रावलपिंडी में बीता। प्राइमरी तक की शिक्षा वहीं प्राप्त की। 1947 में विभाजन के बाद उनका परिवार लुधियाना आ गया। आर्य कॉलेज, लुधियाना में दो वर्षों तक इंटरमीडिएट के छात्र रहे, पर परीक्षा में नहीं बैठे। 1953 में एक मित्र के साथ देश-भ्रमण के लिए निकले और तीन वर्षों तक यायावरी की। इसके बाद कई छोटी-छोटी नौकरियाँ कीं। 1956 में लाहौर बुकशॉप लुधियाना-जालन्धर में नौकरी की। इसी काल में पंजाब में नये लेखकों की ‘जुण्डली’ उभरी जिसके मुखिया कुमार विकल माने जाते थे। रंगमंचीय गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। राजनीतिक विषयों में उनकी गहरी रुचि रही। बहुत सारी कविताएँ बांग्ला, मराठी, गुजराती और पंजाबी में अनूदित हुईं। 1962 से 1995 तक पंजाब विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग में कार्य किया। उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हैं—‘एक छोटी-सी लड़ाई’, ‘रंग ख़तरे में हैं’ और ‘निरुपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ’।

उन्हें 1992 के ‘पहल सम्मान’ से सम्मानित किया गया।

23 फरवरी, 1997 को चंडीगढ़ में उनका निधन हुआ।

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