Prarthna Ke Shilp Mein Nahin

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Prarthna Ke Shilp Mein Nahin

देवी प्रसाद मिश्र के लिए 1987 का ‘भारत भूषण पुरस्कार’ प्रस्तावित करते हुए प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह की संस्तुति थी कि परम्परा के साथ एक नए सम्बन्ध की स्थापना, सामाजिक सरोकार और जीवन्‍त भाषा-संवेदना के कारण देवी प्रसाद मिश्र युवा कवियों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाते हैं।

‘परम्परा पाठ’ और ‘यह समय’ दो हिस्सों में बँटी इस कविता-पुस्तक का कैनवस किसी आदिम मनुष्य की संघर्ष-कथा से लेकर 1988 में मुफ़लिसी और तकलीफ़ में टूटते राम गरीब तक फैला है। हिन्दी कविता में सम्भवतः पहली बार अतीत और समकालिकता को उनकी अविच्छिन्नता और द्वन्द्वात्मकता में आमने-सामने रखा गया है। एक विस्तृत समय-संवेदना में फैली ये कविताएँ भारतीय मनुष्य की उत्पीड़ा और प्रतिरोध को अद्भुत अन्तरंगता, अनुभूति और इतिहासोन्मुखता के साथ व्यक्त करती हैं। अनुभूति और सहानुभूति की इतनी विस्तारधायी और सघन उपस्थिति सचमुच विरल है। दु:ख और दु:ख के कारणों की पड़ताल करती ये कविताएँ किसी भी दुखवाद के विरुद्ध हैं।

राज्य, सत्ता, अत्याचार, दु:ख, अस्तित्व, भाषा, कविता, सरोकार, नैतिकता, संघर्ष, क्रान्ति, परिवर्तन जैसे मुद्दों से टकराती देवी प्रसाद की कविताएँ शिल्प के किसी एकाश्मीय या मोनोलिथिक रूप को अस्वीकृत करती हैं और इस तरह मानो निराला के रचनाकर्म के प्रति प्रतिश्रुत होती हैं।

प्रार्थना के शिल्प में नहींसिर्फ़ निरीहता और याचक मानसिकता के निषेध की ही नहीं, एक सकारात्मक और जनवादी विकल्प की अपूर्व और संवेदनशील प्रस्तावना है।

More Information
Language Hindi
Format Paper Back
Edition Year 2007
Pages 156p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1.5
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Devi Prasad Mishra

Author: Devi Prasad Mishra

देवी प्रसाद मिश्र

कवि-कथाकार-विचारक-फ़िल्मकार देवी प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ ज़िले के रामपुर कसिहा नामक गाँव में अपनी नानी के घर में हुआ। बचपन पिता के स्थानांतरणों के साथ ग्वालियर, रीवा, इलाहाबाद में बीता। पढ़ने में वह हर कक्षा में अव्वल रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए करने तक। पता नहीं क्या ख़ब्त थी कि पूरे दो साल के अध्ययन के बाद एम.ए. (इतिहास) की फ़ाइनल परीक्षा में नहीं बैठे। इस तरह भटकने का सर्टिफ़िकेट लेकर बेमन कभी यहाँ, कभी वहाँ इलाहाबाद, दिल्ली और बंबई में पत्रकारिता के संस्थानों में कुछ-कुछ समय काम किया। कॉलम लिखे। फिर बचपन के दोस्त निशीथ की संस्था 'नॉलेज लिंक्स' में जीविका के निमित्त ग्रामीण सामुदायिक जीवन को लेकर उपयोगितावादी वृत्तचित्र बनाते रहे। तीन दशकों से भी ज़्यादा वक़्त हो गया कि जब पहली और एक मात्र कविता की किताब प्रार्थना के शिल्प में नहीं आयी थी। इस तरह देवी हिन्दी में लगभग बिना किताब का लेखक होकर काम करते रहे हैं जिसके लिए हिन्दी विवेक के प्रति वह अवनत हैं। प्रकाशित होने की ललक से हीन वह किताबों को अब धीरे-धीरे इसलिए छपवाने के लिए पर्युत्सुक हैं कि उनके न रहने पर कोई दूसरा उनकी किताबों को संपादित करते हुए रचनाओं के भिन्न-भिन्न संस्करणों के बिखराव में उलझकर रचनाओं के अशोधित वर्ज़न किताबों में न डाल दे। 'जिधर कुछ नहीं' इस कड़ी की ही काव्य-पुस्तक है। उन्हें कविता के लिए 'भारतभूषण स्मृति सम्मान', 'शरद बिल्लौरे सम्मान' और 'संस्कृति सम्मान' मिला और हेम ज्योतिका के साथ बनाये वृत्तचित्र के लिए 'राष्ट्रीय सम्मान' जिसे उन्होंने एक मोड़ पर सरकार के फ़ासिस्टी रवैये के विरोध में वापस कर दिया। इलस्ट्रेटेड वीकली ने उन्हें 1993 में देश के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले 13 अग्रणी लोगों में शामिल किया। उनकी आजीविका का आधार फ़िल्में बनती रही हैं। उनकी फ़िल्म सतत  को कान के शॉर्ट फ़िल्म कॉरनर में शामिल किया गया और निष्क्रमण नाम की फ़िल्म को फ़्रांस की गोनेला कंपनी ने विश्वव्यापी वितरण के लिए स्वीकार किया। ये दोनों ही फ़िल्में गुना ज़िले के ग़ैरपेशेवर आदिवासी बच्चों को चरित्र बना कर बनायी गयीं। यह सब इसलिए कि नाम की उनकी फ़िल्म कवयित्री ज्योत्सना पर बनायी गयी डॉक्यूमेंट्री है जिन्होंने हिन्दी कविता की मुख्यधारा को धता बताते हुए एक असहमत और आज़ाद जीवन जिया और ज़िंदगी को उसकी आत्यंतिकता में समझने की कोशिश में हँसी-खेल में उसे ख़त्म कर दिया। उन्होंने नज़ीर अकबराबादी और महादेवी वर्मा पर आदमीनामा और पंथ होने दो अपरिचित  शीर्षक से दो शैक्षिक वृत्तचित्र केंद्रीय हिन्दी संस्थान के लिए बनाये। 

देवी ग़ाज़ियाबाद में राज नगर एक्सटेंशन में रहते हैं।

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